छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले के वाड्रफनगर स्थित कस्तूरबा गांधी बालिका आवासीय आश्रम से जो ख़बरें सामने आई हैं, वे बाल संरक्षण और संस्थागत देखभाल प्रणाली की गहरी खामियों को उजागर करती हैं। आदिवासी छात्राओं के साथ मारपीट, गाली-गलौज और मानसिक प्रताड़ना जैसे आरोपों ने न केवल प्रशासनिक विफलता को उजागर किया है, बल्कि एक बड़े सामाजिक प्रश्न को भी जन्म दिया है—क्या हमारी आवासीय शिक्षण संस्थाएं, विशेष रूप से बालिकाओं के लिए बने आश्रम, वास्तव में सुरक्षित हैं?
भारत में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (KGBV) योजना के तहत ग्रामीण और वंचित वर्ग की लड़कियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के उद्देश्य से आवासीय आश्रम बनाए गए हैं। इनका उद्देश्य न केवल शिक्षा देना है, बल्कि उन छात्राओं को सुरक्षित, समावेशी और पोषणयुक्त वातावरण प्रदान करना भी है, जो अन्यथा शिक्षा से वंचित रह जातीं। लेकिन जब इन संस्थानों में ही शोषण, प्रताड़ना और अमानवीय व्यवहार की घटनाएं सामने आती हैं, तो यह संपूर्ण शिक्षा और बाल सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है।
वाड्रफनगर के इस कस्तूरबा गांधी बालिका आश्रम में अधीक्षिका सुषमा जायसवाल पर लगे आरोप यही दर्शाते हैं कि इन संस्थानों में निगरानी और जवाबदेही की भारी कमी है। यदि छात्राओं को सुरक्षा और स्नेह देने की बजाय उन पर हाथ उठाया जाता है, उन्हें गालियां दी जाती हैं, तो यह शिक्षा की बुनियादी भावना के ही खिलाफ है।
इस मामले में सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज द्वारा गठित जांच समिति ने पालकों और छात्राओं के बयान दर्ज करने के बाद यह पुष्टि की है कि अधीक्षिका द्वारा छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया। इसका अर्थ यह है कि यह कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं, बल्कि एक गंभीर समस्या है जिसे स्थानीय समुदाय और समाज भी महसूस कर रहा है।
लेकिन वाड्रफनगर पुलिस चौकी में शिकायत दर्ज कराने के बावजूद यदि उचित कार्रवाई नहीं हुई है, तो यह प्रशासनिक संवेदनहीनता को दिखाता है। आदिवासी समाज को जब बाल कल्याण समिति बलरामपुर में भी आवेदन देना पड़ा, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि न्याय के लिए उन्हें अलग-अलग दरवाजे खटखटाने पड़ रहे हैं।
बालिका आवासीय विद्यालयों में इस तरह की घटनाओं का बार-बार सामने आना संस्थागत लापरवाही और बाल संरक्षण तंत्र की विफलता को दर्शाता है। यह समस्या कई कारणों से पैदा होती है—. अपर्याप्त निगरानी और जवाबदेही – कई आश्रमों और बालिका विद्यालयों में कोई सुनियोजित निरीक्षण तंत्र नहीं होता। अधीक्षकों और शिक्षकों को उचित प्रशिक्षण नहीं दिया जाता कि वे बालिकाओं के साथ कैसे संवाद करें, कैसे अनुशासन लागू करें और उनकी मानसिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं को कैसे समझें।यदि किसी आश्रम या विद्यालय में बालिकाओं को शिकायत दर्ज कराने का कोई सुरक्षित और गोपनीय तरीका नहीं मिलता, तो ऐसी घटनाएं बढ़ती रहती हैं।कई मामलों में प्रशासन या तो मामले को दबाने की कोशिश करता है या फिर केवल कागजी कार्रवाई कर मामले को हल्के में लेता है।
यह मामला केवल एक अधीक्षिका के दुर्व्यवहार का नहीं है, बल्कि यह बालिकाओं के अधिकारों, उनकी सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य का भी मुद्दा है। हमें यह समझना होगा कि यदि एक शिक्षण संस्थान ही बालिकाओं को सुरक्षित माहौल नहीं दे सकता, तो वहां शिक्षा का कोई औचित्य नहीं बचता।
छत्तीसगढ़ सरकार और प्रशासन को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए और निष्पक्ष जांच करवाकर अधीक्षिका के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन इसके साथ-साथ व्यापक सुधार भी जरूरी हैं—आश्रमों और बालिका विद्यालयों की नियमित जांच के लिए स्वतंत्र समितियां बनाई जाएं, ताकि किसी भी प्रकार की गड़बड़ी को तुरंत रोका जा सके। सभी विद्यालयों और आश्रमों में बालिकाओं के लिए गोपनीय शिकायत बॉक्स हों और उनकी शिकायतों को गंभीरता से लिया जाए। अधीक्षकों और शिक्षकों को बच्चों के साथ व्यवहार करने, अनुशासन बनाए रखने और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को पहचानने के लिए अनिवार्य प्रशिक्षण दिया जाए। पालकों और स्थानीय समुदाय को भी विद्यालयों और आश्रमों की गतिविधियों में सक्रिय भागीदार बनाया जाए, ताकि वे अपने बच्चों की स्थिति से अवगत रहें।
इस मामले में आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों ने कहा है कि यदि दोषियों पर जल्द अपराध दर्ज कर निष्पक्ष जांच नहीं हुई, तो वे उग्र आंदोलन करेंगे। यह चेतावनी केवल प्रशासन को झकझोरने के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज को यह सोचने पर मजबूर करने के लिए भी है कि हमारी बेटियों की सुरक्षा के लिए आवाज़ उठाना कितना ज़रूरी हो गया है।
क्या हमें तब तक चुप रहना चाहिए, जब तक कोई बड़ी त्रासदी नहीं हो जाती? क्या हमें उन बालिकाओं की चीखें तभी सुनाई देंगी, जब वे किसी आत्मघाती कदम को मजबूर हो जाएं?
बलरामपुर के इस कस्तूरबा गांधी आश्रम में जो हुआ, वह केवल एक घटना नहीं, बल्कि एक व्यापक समस्या का संकेत है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम वास्तव में उन बच्चों को सुरक्षित माहौल दे पा रहे हैं, जिन्हें हमने शिक्षित करने का संकल्प लिया था?
सरकार, प्रशासन और समाज—तीनों को यह सुनिश्चित करना होगा कि इस मामले में दोषियों को सजा मिले और भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों। यदि हम अपनी बेटियों को सुरक्षित माहौल नहीं दे सकते, तो हमारा शिक्षा तंत्र और सभ्य समाज होने का दावा महज़ एक छलावा है।
अब समय आ गया है कि न केवल इस घटना के दोषियों को सजा मिले, बल्कि बालिका आश्रमों और विद्यालयों में एक व्यापक सुधार अभियान भी चलाया जाए, ताकि कोई भी बच्ची डर और शोषण के साये में न रहे, बल्कि वह स्वतंत्र रूप से शिक्षा ग्रहण कर अपने सपनों को पूरा कर सके।