[शरद कटियार]
सम्पादक, यूथ इंडिया
youthindianews@gmail.com
22 अप्रैल 2025 की सुबह पहलगाम की हसीन वादियाँ, जो कभी सुकून और शांति का प्रतीक हुआ करती थीं, अचानक गोलियों की गूँज और चीखों से कांप उठीं। बैसरण घाटी में आतंकी संगठन ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ (TRF) के 6 से अधिक आतंकियों ने धार्मिक आधार पर चुनकर 28 निर्दोष पर्यटकों की हत्या कर दी। यह केवल आतंकी घटना नहीं थी — यह भारत की धर्मनिरपेक्ष आत्मा पर सुनियोजित हमला था।
हमले का तरीका बेहद चौंकाने वाला और भयावह था। आतंकी सेना की वर्दी पहनकर घाटी में घुसे। पहले पर्यटकों को घेरा गया, फिर उनसे उनके नाम पूछे गए। उन्हें कलमा पढ़ने के लिए बाध्य किया गया। जिन लोगों ने ऐसा करने में असमर्थता जताई, उन्हें गोली मार दी गई। यह ‘शुद्धिकरण’ के नाम पर एक खुला धार्मिक नरसंहार था, जो तालिबानी मानसिकता की प्रतीक बन चुकी है।
इस बर्बरता में कानपुर के निवासी शुभम द्विवेदी की भी हत्या कर दी गई। वे नवविवाहित थे और अपनी पत्नी के साथ हनीमून पर थे। शुभम को इसलिए मारा गया क्योंकि वे हिंदू थे और उन्होंने कलमा पढ़ने से मना किया। उनकी पत्नी की आंखों के सामने उनका खून बहाया गया।
इस हमले की जिम्मेदारी ‘TRF’ ने ली, जो पाकिस्तान समर्थित लश्कर-ए-तैयबा का ही छद्म नाम है। यह संगठन कश्मीर को ‘इस्लामी भूभाग’ मानते हुए गैर-मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा फैलाता है। TRF का स्पष्ट एजेंडा है — कश्मीर को धार्मिक रूप से शुद्ध करना, वहाँ से हिंदुओं, सिखों, जैनों और गैर-मुस्लिम पर्यटकों को डराकर भगाना।
इस संगठन को पाकिस्तानी आईएसआई, हिज़बुल मुजाहिदीन, और अलकायदा से आर्थिक और तकनीकी सहायता मिलती है। सोशल मीडिया पर इनकी प्रचार मशीनरी युवाओं को गुमराह कर कट्टरपंथ की ओर धकेल रही है।
राजनीतिक चुप्पी: सपा और कांग्रेस का मौन अपमानजनक
घटना के बाद जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुरंत अपनी सऊदी यात्रा बीच में छोड़ दी, गृहमंत्री अमित शाह श्रीनगर पहुँचे, वहीं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों — सपा (समाजवादी पार्टी) और कांग्रेस पार्टी की रहस्यमयी चुप्पी सवालों के घेरे में है।
सपा के अखिलेश यादव, जो हर मुद्दे पर ट्वीट करते हैं, उन्होंने इस नरसंहार पर सही से एक शब्द नहीं कहा।
कांग्रेस के राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, जो मानवाधिकार और संविधान की दुहाई देते रहते हैं, उन्होंने एक भी संवेदना नहीं जताई।
क्या पीड़ितों का धर्म उनकी संवेदना तय करता है? क्या हिंदू होना अब राजनेताओं के लिए ‘राजनीतिक रूप से अनुकूल’ नहीं रहा।
सोशल मीडिया पर देश के मुसलमानों की चुप्पी क्यों?
यह सवाल भी देश की आत्मा को कुरेदता है — जब भी किसी मुस्लिम युवक के साथ अन्याय होता है, पूरा सोशल मीडिया उसके समर्थन में उठ खड़ा होता है। जुलूस निकलते हैं, नारे लगते हैं, मीडिया अभियान चलाता है। लेकिन जब धार्मिक पहचान के कारण हिंदुओं को मारा गया, तो अधिकांश मुस्लिम बुद्धिजीवियों, मौलवियों और सेलिब्रिटी मुसलमानों ने चुप्पी साध ली।क्या इंसानियत की कोई धार्मिक जात होती है?क्या अल्पसंख्यक केवल एकतरफा संवेदना की पात्रता रखते हैं?
बेशक, कई मुस्लिम नागरिकों ने इस हमले की निंदा की, पर वे आवाजें बहुसंख्यक मुस्लिम नेतृत्व या संगठनों से नहीं आईं। न नदवा की तरफ से कोई बयान, न जमीयत उलेमा-ए-हिंद की तरफ से कोई प्रेस रिलीज, न ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कोई प्रतिक्रिया।
क्या ये महज आतंकी हमला है? नहीं — ये धार्मिक जिहाद है
इस तरह के हमले किसी सैन्य संघर्ष का हिस्सा नहीं, बल्कि एक स्पष्ट धार्मिक जिहाद का प्रतीक हैं। आतंकी केवल पर्यटकों को मारना नहीं चाहते थे, वे यह संदेश देना चाहते थे कि ‘अगर आप मुस्लिम नहीं हो, तो कश्मीर में सुरक्षित नहीं हो’।
इस तरह के कृत्य तालिबान, आईएसआईएस और बोको हराम जैसी मानसिकता के विस्तार हैं, जो भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और साझा संस्कृति के लिए घातक हैं।
देश के कई बड़े अंग्रेज़ी और हिंदी मीडिया हाउसों ने भी इस घटना की खबर को एक ‘न्यूज़ आइटम’ से ज्यादा महत्व नहीं दिया। कोई डिबेट नहीं, कोई हेडलाइन नहीं, कोई ग्राउंड रिपोर्ट नहीं।
ऐसे में सवाल उठता है — क्या मीडिया को भी अब ‘मृतक का धर्म’ देखकर संवेदना और हेडलाइन बनानी पड़ती है?
सरकार ने तुरंत आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन शुरू किया है। एनआईए जांच कर रही है, सेना ने कई जगहों पर छापेमारी की है। लेकिन प्रश्न यह है कि:
>> टी आर एफ के ऑनलाइन नेटवर्क को क्यों नहीं रोका गया अब तक?
>> पाकिस्तान से हो रही घुसपैठ को स्थायी रूप से कैसे रोका जाएगा?
>> क्या धार्मिक पहचान के आधार पर हुए इस नरसंहार को ‘धार्मिक हिंसा’ घोषित किया जाएगा?
इस दर्दनाक घटना से समाज को भी सीख लेनी चाहिए।कट्टरता का उत्तर शिक्षा है। धार्मिक संस्थानों को चाहिए कि वे अपने अनुयायियों को इंसानियत की शिक्षा दें।
हिंदू-मुस्लिम नागरिकों की एकजुटता: सच्चे भारतीय मुसलमानों को इस तरह की घटनाओं की निंदा करनी चाहिए, ताकि यह स्पष्ट हो कि भारत का मुस्लिम समाज भी इस तरह की हिंसा का विरोध करता है।
शुभम द्विवेदी की पत्नी ने जो बताया, वह देश की अंतरात्मा को हिला देता है — “वो कलमा नहीं पढ़ सके, इसलिए गोली मार दी गई।” यह केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं थी — यह भारत की आत्मा का बलिदान था।
हमें यह तय करना होगा कि क्या हम ऐसी घटनाओं पर चुप रहेंगे, या एक राष्ट्र के रूप में मिलकर आतंक और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ खड़े होंगे।
सपा और कांग्रेस को जवाब देना होगा कि वे कब तक वोटबैंक की राजनीति के चलते आतंक पर चुप्पी साधे रहेंगे?
देश के मुस्लिम समाज को भी यह दिखाना होगा कि वे केवल धर्म के नहीं, बल्कि इंसानियत के पक्षधर हैं।
मीडिया को निष्पक्षता और संवेदना दोनों का पालन करना होगा।
यह समय है जब भारत को एक साथ खड़े होकर कहना चाहिए:
“धर्म के नाम पर एक भी हत्या स्वीकार नहीं — न कश्मीर में, न कहीं और।”