लखनऊ। जहां एक ओर भारत सरकार किसानों को डिजिटल रूप से सशक्त करने और हर स्तर पर सहायता प्रदान करने की दिशा में प्रयासरत है, वहीं दूसरी ओर एक प्रमुख कृषि उत्पाद कंपनी का टोल फ्री हेल्पलाइन नंबर लंबे समय से निष्क्रिय पड़ा है। इस कारण उत्तर प्रदेश समेत देश के विभिन्न हिस्सों के किसान तकनीकी परामर्श, उर्वरक आपूर्ति, एवं अन्य समस्याओं के समाधान से वंचित हो रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में इस कंपनी के स्टेट हेड अरुनी कुमार, जो अक्सर स्वयं को “उत्तर प्रदेश का शहंशाह” कहने से नहीं चूकते, इस गंभीर तकनीकी लापरवाही से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। जानकार सूत्रों के अनुसार, न तो उन्होंने इस मुद्दे को अब तक नोटिस किया और न ही किसी प्रकार की समाधान प्रक्रिया आरंभ की है।
यह न केवल प्रशासनिक असंवेदनशीलता को दर्शाता है, बल्कि यह किसानों के अधिकारों का भी सीधा उल्लंघन है।
कई जिलों से किसानों ने बताया कि वे कंपनी के टोल फ्री नंबर पर बार-बार संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हर बार उन्हें “लाइन डेड” या “अमान्य नंबर” का संदेश ही प्राप्त होता है।
एक किसान नेता ने कहा, “जब भी उर्वरक की सप्लाई में दिक्कत आती है या कोई डीलर मनमानी करता है, हमें इसी नंबर के ज़रिए मदद मिलती थी। अब तो कोई रास्ता ही नहीं बचा।”
भारत सरकार के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम और कृषि इनपुट कंपनियों के दिशा-निर्देशों के अनुसार, प्रत्येक रजिस्टर्ड एग्रीकल्चर कंपनी को एक सक्रिय, नि:शुल्क और 24×7 टोल फ्री हेल्पलाइन सेवा उपलब्ध करानी अनिवार्य है। ऐसा न होना, स्पष्ट रूप से सरकारी नियमों का उल्लंघन है।
सबसे बड़ा प्रश्न यह उठ रहा है कि –
क्या यह केवल एक तकनीकी गड़बड़ी है? या फिर जानबूझकर की गई प्रशासनिक अनदेखी?
क्या जिम्मेदार अधिकारी अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग रहे हैं?
किसानों और कर्मचारियों का मानना है कि यदि शीर्ष अधिकारी ही आंख मूंद लें, तो जमीनी समस्याओं का समाधान असंभव हो जाता है।
इस गंभीर मुद्दे को उजागर करते हुए एक कर्मचारी ने लेखन के माध्यम से कंपनी प्रबंधन को शिकायत दर्ज कराई है। उन्होंने अपनी शिकायत में तीन प्रमुख माँगें रखीं,टोल फ्री नंबर को तत्काल प्रभाव से पुनः चालू किया जाए,
जिम्मेदार अधिकारियों पर कड़ी अनुशासनात्मक कार्यवाही हो,
एक पारदर्शी और जवाबदेह शिकायत निवारण प्रणाली लागू की जाए।
यह देखना अब महत्वपूर्ण होगा कि क्या कंपनी इस शिकायत को गंभीरता से लेती है और कोई कार्रवाई करती है, या यह मामला कृषि मंत्रालय और मीडिया की दहलीज़ पर पहुँचकर ही हल निकालेगा।
किसानों के हितों से जुड़ा यह विषय केवल तकनीकी नहीं, बल्कि नैतिक और प्रशासनिक जवाबदेही का भी मामला बन चुका है।