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Wednesday, May 21, 2025

कन्नौज में बढ़ता जनाक्रोश और भाजपा की गिरती साख,झूठे मुकदमे नामक हथियार से कराहती जनता

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– लोधियों संग सौतेला व्यवहार, सहित पत्रकारों पर भी गिर रही गाज़ से उफनती गुस्सा

– शरद कटियार

उत्तर प्रदेश का कन्नौज जिला इन दिनों राजनीतिक उठा-पटक और जनाक्रोश का केंद्र बनता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी, जो ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर सत्ता में आई थी, अब उसी जनता के विरोध का सामना कर रही है। पार्टी के आंतरिक कार्यक्रमों में लोधी समाज के अपने ही कार्यकर्ताओं द्वारा ‘मुर्दाबाद’ के नारे लगाए जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। ये घटनाएं केवल असंतोष की परछाई नहीं हैं, बल्कि यह उस आक्रोश का विस्फोट हैं जो वर्षों से पनप रहा है।पूर्व में गुस्से की लहर बमुश्किल थमी थी,जो फिर चल निकली।

कन्नौज में भाजपा के पूर्व सांसद सुब्रत पाठक पर स्थानीय नागरिकों और पत्रकारों द्वारा गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं। आरोप हैं कि उनके कार्यकाल में न केवल पत्रकारों पर झूठे मुकदमे दर्ज कराए गए, बल्कि इन मामलों में उन्हें कई धाराओं में फंसाकर जेल भेजा गया। यह केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला नहीं, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को दबाने की सुनियोजित कोशिश है।

पत्रकारों के साथ ऐसा व्यवहार केवल सत्ता की असहिष्णुता का प्रतीक नहीं, बल्कि उस डर का भी परिचायक है जो सत्ताधारी वर्ग को सच सामने आने से होता है। यदि सत्य बोलने वालों को झूठे मामलों में फंसाया जाएगा, तो यह समाज को अंधकार की ओर ले जाने वाली प्रवृत्ति होगी।

इस पूरे परिदृश्य में केवल पत्रकार ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक अधिकारी भी निशाने पर रहे। रिपोर्टों के अनुसार, भाजपा से जुड़े प्रभावशाली लोगों द्वारा सदर तहसीलदार के घर में घुसकर उनके साथ मारपीट की गई। साथ ही एक अन्य घटना में स्थानीय चौकी में घुसकर चौकी इंचार्ज से भी मारपीट हुई। ये घटनाएं न केवल कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं, बल्कि यह दर्शाती हैं कि राजनीतिक सत्ता के संरक्षण में किस प्रकार कानून का दुरुपयोग हो रहा है।

यदि किसी जिले में प्रशासनिक अधिकारियों को भी सुरक्षित महसूस न हो, तो आम नागरिकों की सुरक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है? यह स्थिति केवल अराजकता नहीं, बल्कि लोकतंत्र पर सीधा प्रहार है।

वर्तमान परिस्थितियों में यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा केवल विपक्षी दलों से ही नहीं, बल्कि अपने ही कार्यकर्ताओं के आक्रोश का भी सामना कर रही है। हाल ही में मेडिकल कालेज के एक कार्यक्रम में भाजपा कार्यकर्ताओं ने मंच से ही ‘मुर्दाबाद’ के नारे लगाए। यह आक्रोश केवल नेतृत्व की विफलताओं का नहीं, बल्कि उस धोखे का परिणाम है जो पार्टी ने जनता से अपने वादों के रूप में किया था।

‘विकास’ के नाम पर जनता को सपने दिखाए गए, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही रही। कन्नौज जैसे जिलों में बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं, बेरोजगारी और महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है। और जब जनता सवाल पूछती है, तो उन्हें ‘झूठे मुकदमे’ नामक हथियार से चुप कराया जाता है।

एक अन्य गंभीर मामला भाजपा की ही पूर्व नेत्री से जुड़ा है, जिनपर आरोप है कि उन्होंने स्थानीय लोगों और उच्च पदस्थ पत्रकारों के खिलाफ झूठे आरोप लगाकर मुकदमे लिखवाए। और उन मामलों में मंत्री अरुण असीम का समर्थन भी सामने आया, जिसने सत्ता के संरक्षण में इस अन्याय को और अधिक पुष्ट किया।

यह स्थिति दर्शाती है कि जब सत्ता का उद्देश्य जनसेवा के बजाय व्यक्तिगत प्रतिशोध और राजनीति की रक्षा बन जाता है, तो समाज में विश्वास की दीवारें ढहने लगती हैं। श्रद्धा और आस्था के साथ ऐसा खिलवाड़ केवल कानूनी अन्याय नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अपमान भी है।

अब जब भाजपा के अपने कार्यक्रमों में ही विरोध की आवाजें उठने लगी हैं, तो यह स्पष्ट है कि जनता अब चुप नहीं रहेगी। पिछले वर्षों में जो अन्याय, उत्पीड़न और झूठे वादे जनता ने सहे, अब उसका हिसाब मांगा जा रहा है।
कन्नौज की जनता ने अब तय कर लिया है कि वे उन नेताओं को सबक सिखाएंगे जिन्होंने उनकी भावनाओं के साथ खेला, झूठे मुकदमे दर्ज कराए, और लोकतंत्र के स्तंभों को कुचलने की कोशिश की। यह केवल सत्ता परिवर्तन की मांग नहीं, बल्कि जनसम्मान और न्याय की पुकार है।

भाजपा के लिए यह समय केवल विरोध को खारिज करने का नहीं, बल्कि आत्ममंथन का है। क्या पार्टी अपने नेताओं के कृत्यों की जांच करवाएगी? क्या पत्रकारों और अधिकारियों पर हुए अन्याय की समीक्षा की जाएगी? या फिर पार्टी इसी तरह असंतोष को दमन के माध्यम से नियंत्रित करने की कोशिश करती रहेगी?

यदि भाजपा वाकई लोकतंत्र और जनसेवा के मूल्यों में विश्वास रखती है, तो उसे कन्नौज जैसी घटनाओं को चेतावनी मानकर अपनी नीतियों में सुधार करना होगा। अन्यथा जनता का आक्रोश किसी भी सत्ताधारी को बहुत दूर तक नहीं ले जाने देता।

कन्नौज की वर्तमान स्थिति एक आईना है—जिसमें सत्ता को खुद को देखना होगा और तय करना होगा कि वह जनविरोध का प्रतीक बनना चाहती है या जनसेवा का उदाहरण।

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