फर्रुखाबाद: जैसे ही पंचायत चुनाव (panchayat elections) की आहट सुनाई दी, राजनीतिक दलों (political parties) में कार्यकर्ताओं की अचानक अहमियत बढ़ गई। जो कार्यकर्ता अब तक संगठन के कोनों में उपेक्षित पड़े रहते थे, वही अब मंचों की शोभा बनते नजर आ रहे हैं। पार्टियों में अब भीड़ जुटाने और प्रचार को गति देने के लिए इन कार्यकर्ताओं को “देवतुल्य” मानने का दौर शुरू हो गया है।
वर्षों से सक्रिय कार्यकर्ताओं की यह दर्दभरी सच्चाई है कि वे सामान्य दिनों में सरकारी दफ्तरों में पहचान बताने से भी कतराते हैं क्योंकि पहचान बताने पर उल्टा नुकसान होता है। सरकारी अस्पताल, तहसील, कलेक्ट्रेट – कहीं भी अतिरिक्त सुविधा नहीं मिलती, बल्कि काम टाल दिया जाता है।
कार्यकर्ता जब भी चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं, तो उन्हें यह उम्मीद होती है कि सरकार बनने के बाद उनके भी अच्छे दिन आएंगे, लेकिन वास्तविकता इसके ठीक उलट होती है। चुनाव के बाद वही पुराने दलाल और चाटुकार सत्ता के दरबार में बैठ जाते हैं, और कार्यकर्ता फिर से लाइन में लगने को मजबूर हो जाते हैं।
सिफारिशें अब सिर्फ पेंडिंग में जाती हैं, काम तो रिश्वत से ही होता है — वो भी पहले से ज्यादा कीमत पर।
सरकारी कार्यालयों में छोटे-छोटे काम जैसे जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र, जाति, निवास बनवाना आम लोगों के लिए जंग जैसा हो गया है। बाबुओं और राजस्व कर्मियों का मनमाना रवैया, सिफारिशों को नकारना और रिश्वत की मांग – यह सब आमजन को परेशान कर रहा है। सत्ताधारी दल के नाम से सिफारिश करने पर काम टालना अब एक आम चलन बन गया है।
सम्पूर्ण समाधान दिवस या अन्य शिकायत मंचों पर जनप्रतिनिधियों की बेरुखी साफ नजर आती है।
अधिकतर प्रार्थना पत्र सिर्फ फाइलों की शोभा बनकर रह जाते हैं। कोई ऐसा प्रभावी मंच नहीं है, जहां जनता गैर-जिम्मेदार अधिकारियों की शिकायत कर सके और तत्काल कार्रवाई की उम्मीद कर सके। अब जब पंचायत चुनाव नजदीक हैं, तो कार्यकर्ताओं को फिर से महत्व मिलने लगा है। अब सचिव, बीडीओ और अफसर उनके फोन उठाने लगे हैं। परिवार रजिस्टर में नाम चढ़वाना हो या अन्य प्रमाणपत्र बनवाना हो, अब उनके कामों में प्राथमिकता दी जा रही है।
शहर और ग्रामीण क्षेत्रों के दफ्तरों का अंदरूनी बंटवारा नेताओं और अधिकारियों के बीच हो चुका है। एक-दूसरे के क्षेत्र में दखल कोई नहीं देता। सचिव क्या करते हैं, किस तरीके से काम टालते हैं – इस पर कोई ध्यान नहीं देता। जनता और कार्यकर्ताओं के सामने यह बड़ा सवाल खड़ा है — क्या उनकी अहमियत सिर्फ चुनाव तक सीमित रह जाएगी या इस बार कुछ स्थायी बदलाव देखने को मिलेगा? या फिर चुनाव खत्म होते ही फिर वही पुरानी कहानी दोहराई जाएगी — ‘काम नहीं हुआ तो सिफारिश मत कराओ, और सिफारिश की तो अब और भी मुश्किल’।