— अखिलेश यादव के बयानों की पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीति की समीक्षा
उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाल ही में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा कन्नौज में दिए गए बयान एक बार फिर इस ओर संकेत करते हैं कि राज्य की सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव अब केवल नीतिगत मतभेदों तक सीमित नहीं रहा। यह बहस अब सामाजिक सरोकारों, प्रशासनिक नैतिकता और लोकतंत्र की मूलभूत अवधारणाओं तक पहुंच चुकी है।
कन्नौज दौरे के दौरान अखिलेश यादव ने जिस स्पष्टता से प्रदेश सरकार के स्कूल मर्जर फैसले का विरोध किया, वह केवल एक राजनीतिक स्टैंड नहीं बल्कि ग्रामीण समाज, विशेषकर बेटियों की शिक्षा के भविष्य को लेकर गंभीर चिंता का संकेत है।
सरकार द्वारा किए जा रहे स्कूलों के विलय (मर्जर) के फैसले को अखिलेश यादव ने “शिक्षा से वंचन की साजिश” करार दिया। उनका मानना है कि इससे गांवों में रहने वाली बेटियों को स्कूल तक पहुंचने में कठिनाई होगी और वे शिक्षा से दूर होती चली जाएंगी। उनके अनुसार, समाजवादी सरकार ने जब शासन किया था, तब प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे को मजबूत किया गया था, विशेषकर गांवों में स्कूल खोलकर शिक्षा को सुलभ बनाया गया।
उनकी यह बात मौजूदा सामाजिक ढांचे में बेहद मौजूं प्रतीत होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा पहले ही विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक कारणों से सीमित रही है। अगर सरकार स्कूलों को मर्ज कर दूरस्थ स्थानों पर स्थानांतरित कर रही है, तो यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या सरकार ने स्कूल जाने वाली छात्राओं की सुरक्षा, सुविधा और सुलभता का आकलन किया है?
इस मुद्दे पर सरकार की चुप्पी या औपचारिक तर्क विपक्ष को एक मजबूत नैतिक आधार देती है कि शिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान सरकार की प्राथमिकताएं स्पष्ट नहीं हैं।
अखिलेश यादव ने सिर्फ शिक्षा को ही नहीं, बल्कि प्रदेश की कानून-व्यवस्था को लेकर भी सरकार पर तीखा हमला बोला। उन्होंने कहा कि “हर जिले से भ्रष्टाचार की शिकायतें आ रही हैं और कोई सुनवाई नहीं हो रही।” यह वक्तव्य जनता के बीच व्याप्त असंतोष को स्वर देने का एक माध्यम बनता है।
उन्होंने आरोप लगाया कि पुलिस और प्रशासनिक तंत्र में ट्रांसफर-पोस्टिंग को ‘कमाई का जरिया’ बना दिया गया है। यह आरोप नया नहीं है, लेकिन जब इसे विपक्ष का प्रमुख नेता दोहराता है, तो यह एक बार फिर प्रशासनिक पारदर्शिता पर सवाल खड़े करता है।
स्वास्थ्य विभाग में मनमाने तबादलों और ट्रांसफर के पीछे कथित घूसखोरी की जो बात उन्होंने उठाई, वह राज्य की सबसे संवेदनशील सेवाओं पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है। क्या यह स्वीकार किया जा सकता है कि एक ऐसा विभाग, जो आमजन की जान से जुड़ा है, वहां भी राजनीतिक लाभ और आर्थिक स्वार्थ प्राथमिकता बन जाएं?
कन्नौज में स्थानीय व्यापारियों से मुलाकात और भरोसे के साथ किया गया यह वादा कि “सपा सरकार बनने पर हर संभव मदद की जाएगी” एक राजनीतिक रिवायत हो सकती है, लेकिन इसका संदेश व्यापक है। यह संवाद भविष्य की राजनीति की दिशा को भी इंगित करता है — जिसमें सत्ता में आने की तैयारी केवल वादों से नहीं, जनमत के साथ सार्थक जुड़ाव से तय होगी।
अखिलेश यादव ने कार्यकर्ताओं से भी आह्वान किया कि वे जनता के बीच जाकर सरकार की नीतियों के विरुद्ध जागरूकता फैलाएं। यह केवल चुनावी रणनीति नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के उस पक्ष को भी उजागर करता है, जिसमें विपक्ष न केवल सवाल उठाता है बल्कि वैकल्पिक सोच भी प्रस्तुत करता है।
विपक्ष की भूमिका केवल विरोध तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। उसे सरकार की नीतियों की कमियों को उजागर करने के साथ-साथ जनकल्याण की वैकल्पिक नीतियों की रूपरेखा भी प्रस्तुत करनी चाहिए — और अखिलेश यादव का यह प्रयास उसी दिशा में एक कदम माना जा सकता है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अखिलेश यादव का यह दौरा और भाषण सिर्फ विरोध प्रदर्शन नहीं, बल्कि आगामी चुनाव की तैयारियों का आरंभिक संकेत है। सरकार के कामकाज की समीक्षा, जनमानस की पीड़ा और विपक्ष की सक्रियता — यह सब कुछ चुनावी अभियान की एक ठोस पृष्ठभूमि रच रहे हैं।
प्रदेश की राजनीति अब उस मुकाम पर है जहां विकास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे सियासी वाद-विवाद से बाहर निकलकर जन-चिंतन का हिस्सा बनते जा रहे हैं। ऐसे में विपक्ष को भी चाहिए कि वह केवल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से ऊपर उठकर रचनात्मक आलोचना और समाधान का रास्ता दिखाए।
भारत में शिक्षा का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है, जिसे 2009 में लागू किया गया था। इस कानून के तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया। स्कूल मर्जर जैसे निर्णयों से क्या यह अधिकार प्रभावित नहीं हो रहा? जब स्कूल की दूरी बढ़ाई जाती है, तो वह न केवल भौगोलिक दूरी बनती है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और मानसिक दूरी भी बन जाती है।
सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी फैसला बच्चों की पहुंच को सीमित करने वाला न हो। बेटियों की शिक्षा को लेकर विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि वे पहले ही सामाजिक जटिलताओं से जूझ रही हैं। सपा अध्यक्ष का यह कहना कि स्कूल मर्जर से बेटियों की शिक्षा प्रभावित होगी, केवल एक राजनैतिक वक्तव्य नहीं, बल्कि समाज की एक सच्चाई को उजागर करता है।
लोकतंत्र में सरकार और जनता के बीच संवाद अत्यंत आवश्यक होता है। इसी संवाद के माध्यम से समस्याओं का समाधान निकलता है। जब विपक्ष किसी नीति की आलोचना करता है, तो यह सरकार के लिए एक अवसर होता है — सुधार करने का, संवाद बढ़ाने का और जनविश्वास को पुनः प्राप्त करने का।
यदि विपक्ष को केवल शत्रु मानकर उसकी आलोचना को खारिज कर दिया जाए, तो यह लोकतंत्र को कमजोर करता है। लेकिन अगर सरकार आलोचना को एक दर्पण माने और आत्मचिंतन करे, तो यही लोकतंत्र की खूबसूरती है।
अखिलेश यादव द्वारा कन्नौज में दिए गए बयान और उनकी तीव्र प्रतिक्रिया न केवल एक राजनीतिक प्रतिक्रिया थी, बल्कि एक व्यापक सामाजिक चिंतन की भी शुरुआत थी। स्कूल मर्जर, कानून-व्यवस्था की गिरती हालत, भ्रष्टाचार में लिप्त तबादले और जनकल्याण की उपेक्षा — ये सब उत्तर प्रदेश की जनता के लिए केवल खबर नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव हैं।
अब समय है कि सरकार इन आलोचनाओं को केवल विपक्षी प्रहार न मानकर, एक अवसर के रूप में देखे — जहां वह नीतिगत सुधार कर सकती है और प्रशासनिक जवाबदेही को मजबूत बना सकती है। वहीं विपक्ष को भी यह साबित करना होगा कि वह केवल सत्तालिप्सा में नहीं, बल्कि जनसरोकारों की लड़ाई में गंभीरता से खड़ा है।
लोकतंत्र में आलोचना और संवाद ही सबसे बड़ी ताकत होती है। और जब शिक्षा, कानून-व्यवस्था और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर यह संवाद शुरू होता है, तो यह समाज के लिए शुभ संकेत होता है — बशर्ते वह संवाद सार्थक दिशा में ले जाया जाए।