शरद कटियार
उत्तर प्रदेश की नौकरशाही और राजनीति के बीच अक्सर रस्साकशी की खबरें सुर्खियाँ बनती रही हैं, लेकिन इस बार कानपुर में मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) डॉ. हरिदत्त नेमी का निलंबन न केवल एक प्रशासनिक निर्णय था, बल्कि यह योगी आदित्यनाथ सरकार की “जीरो टॉलरेंस” नीति का वो चेहरा बन गया, जिसे राजनीतिक हस्तक्षेप, आंतरिक गुटबाजी और सत्ता की जटिलताओं के बीच भी अडिग रखा गया।
कहानी जितनी सीधी दिखती है, उतनी नहीं है। यह केवल एक अधिकारी की निलंबन की फाइल पर हस्ताक्षर नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री और राज्य प्रशासन की उस सोच की अभिव्यक्ति है जो भ्रष्टाचार, लापरवाही और सिफारिश संस्कृति पर सीधी चोट करती है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या यह कार्रवाई योगी सरकार की प्रशंसनीय सख्ती है, या भाजपा के भीतर की अंदरूनी खींचतान और सत्ता संघर्ष का एक राजनीतिक परिणाम?
5 फरवरी 2025 को जिलाधिकारी जितेन्द्र प्रताप सिंह ने कानपुर के सीएमओ कार्यालय पर अचानक छापा मारा। छापे के दौरान मुख्य चिकित्सा अधिकारी स्वयं कार्यालय में मौजूद नहीं थे और 34 कर्मचारी अनुपस्थित पाए गए। यह पहली बार नहीं था जब किसी कार्यालय में लापरवाही सामने आई हो, लेकिन जिलाधिकारी द्वारा की गई इस कार्यवाही ने एक लंबी प्रशासनिक और राजनीतिक लड़ाई की नींव रख दी।
डीएम ने अपनी रिपोर्ट में सीएमओ डॉ. नेमी पर गंभीर लापरवाही, भ्रष्टाचार और गैरकानूनी ढंग से फर्मों के भुगतान से जुड़े मामलों को सामने रखा। उधर, डॉ. नेमी ने स्वयं को साजिश का शिकार बताया और एक चार्जशीटेड फर्म के भुगतान पर रोक लगाने की बात कही, जो कथित रूप से कुछ रसूखदार लोगों के लिए असहज थी।
इस पूरे घटनाक्रम में जिस बात ने सबसे अधिक ध्यान खींचा, वह थी भाजपा के बड़े नेताओं की सीधी पैरवी। विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना, विधायक सुरेंद्र मैथानी, और एमएलसी अरुण पाठक जैसे प्रभावशाली नेताओं ने डॉ. नेमी के पक्ष में खुलकर सिफारिश की। डिप्टी सीएम बृजेश पाठक तक को व्यक्तिगत रूप से पत्र भेजे गए, जिसमें लिखा गया कि सीएमओ का व्यवहार और कार्यशैली अच्छी रही है तथा उनका स्थानांतरण रोका जाए।
यहाँ तक कि यह भी कहा गया कि डॉ. नेमी पर लगाए गए आरोप प्रशासनिक मतभेद या व्यक्तिगत टकराव का परिणाम हैं। परंतु योगी सरकार ने इस पूरी लॉबिंग को दरकिनार कर जो निर्णय लिया, उसने यह स्पष्ट कर दिया कि अब अनुशासनहीनता के मामलों में राजनीतिक वजन काम नहीं करेगा।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ओर से जिस प्रकार इस मामले में “नो नॉनसेंस” रुख अपनाया गया, वह आज की राजनीतिक व्यवस्था में विरले ही देखने को मिलता है। यहाँ निलंबन केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस प्रवृत्ति की थी जो नौकरशाही में राजनीतिक हस्तक्षेप को सामान्य मान चुकी थी।
यह फैसला प्रशासनिक अनुशासन की पुनर्स्थापना के साथ-साथ भाजपा के अंदर चल रही खेमेबाजी को लेकर भी एक सख्त संकेत था। सरकार ने यह जताने की कोशिश की कि चाहे पैरवी विधानसभा अध्यक्ष की हो या किसी विधायक की, नियम और कर्तव्य के उल्लंघन पर समझौता नहीं किया जाएगा।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इस मामले को भाजपा के अंदरूनी संघर्ष से जोड़ते हुए तीखी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि “डबल इंजन सरकार के दोनों इंजन आपस में टकरा रहे हैं।” उन्होंने इसे डिप्टी सीएम और सीएम के बीच के मतभेदों से जोड़ा। वहीं, कांग्रेस ने इसे केवल नौकरशाही पर दबाव की राजनीति बताते हुए राज्यपाल को पत्र लिखकर उच्चस्तरीय जांच की माँग की।
हालाँकि विपक्ष की इन प्रतिक्रियाओं में राजनीति अधिक और तथ्य कम दिखे, लेकिन यह सच है कि इस कार्रवाई ने सरकार के भीतर की राजनीति और शक्ति संतुलन को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए।
सीएमओ डॉ. नेमी की तरफ से जो तर्क दिए गए, वे भी एक अलग पक्ष खोलते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि उन्होंने एक चार्जशीटेड फर्म के पेमेंट पर रोक लगाई थी, जो प्रभावशाली लोगों से जुड़ी थी। यदि इसमें सच्चाई है तो यह मामला केवल भ्रष्टाचार या अनुपस्थित कर्मचारियों तक सीमित नहीं, बल्कि उच्चस्तरीय दबाव और सत्ता के कारोबारी गठजोड़ की गहराई तक जाता है।
यह भी जरूरी है कि सरकार केवल निलंबन को ही अंत न माने, बल्कि उस फर्म और उससे जुड़े भुगतान मामलों की पारदर्शी जांच कर यह साबित करे कि वह सचमुच ‘भ्रष्टाचार पर शून्य सहनशीलता’ की नीति पर चल रही है।
इस निर्णय से प्रदेश के प्रशासनिक अधिकारियों को दो विरोधाभासी संदेश मिले हैं। पहला — अगर आप गड़बड़ी करेंगे, तो चाहे कितनी भी राजनीतिक सिफारिश हो, कार्रवाई तय है। दूसरा — अगर आप प्रभावशाली फर्मों से टकराएंगे, तो हो सकता है आपको साजिश का शिकार बना दिया जाए।
सरकार को इस संतुलन को समझना होगा। शासन व्यवस्था की रीढ़ नौकरशाही है, और उसमें ‘डर’ नहीं, ‘उत्तरदायित्व और निष्पक्षता’ का माहौल होना चाहिए। यदि एक अधिकारी वास्तव में गलत है, तो कानूनन कार्रवाई हो। पर यदि कोई अधिकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होता है और उसे ही बलि का बकरा बना दिया जाता है, तो वह पूरी प्रणाली के लिए खतरनाक मिसाल होगी।
इस घटनाक्रम ने भाजपा के भीतर की पावर पॉलिटिक्स को भी उजागर किया है। विधानसभा अध्यक्ष से लेकर एमएलसी तक जिस प्रकार खुलकर एक सीएमओ के पक्ष में आ गए, वह यह दर्शाता है कि या तो अधिकारी विशेष किसी खेमे का प्रिय था, या फिर खेमों के बीच की रस्साकशी अब संगठन की सार्वजनिक छवि को नुकसान पहुँचा रही है।
भाजपा जिस डिसिप्लिन और कैडर आधारित संगठन के रूप में जानी जाती है, वहाँ ऐसी स्थिति पार्टी नेतृत्व के लिए भी चुनौती है। यदि इस प्रकरण के बहाने संगठन के अंदर चल रहे मतभेद खुलकर सामने आते हैं, तो इसका असर आगामी चुनावों पर भी पड़ सकता है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस प्रकरण के माध्यम से दो स्तरों पर स्पष्ट संदेश दिया है। एक, सार्वजनिक पदों पर बैठे अधिकारियों को जवाबदेह होना ही होगा, और दूसरा, राजनीतिक सिफारिशें अब काम नहीं करेंगी। यह दो बातें योगी की प्रशासनिक शैली की पहचान रही हैं — स्पष्टता, निर्णायकता और अनुशासन।
पिछले कई वर्षों में योगी सरकार ने अधिकारियों के तबादलों, निलंबन, भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई और अपराधियों पर कठोर कदमों के माध्यम से प्रशासनिक सुधारों की दिशा में प्रयास किए हैं। लेकिन अब समय है कि यह प्रयास केवल कार्रवाई की सीमाओं तक न रह जाएं, बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था को पारदर्शिता, आत्मविश्वास और दक्षता की ओर ले जाएँ।
सीएमओ हरिदत्त नेमी का निलंबन एक आम घटना नहीं है। यह एक ऐसे अधिकारी की बर्खास्तगी है, जो या तो व्यवस्था का दोषी था या फिर सिस्टम से टकरा गया। जो भी सच हो, एक बात साफ है — यह फैसला योगी सरकार के प्रशासनिक सख्ती के चेहरे को उजागर करता है।
इस पूरे घटनाक्रम से यह भी सिद्ध होता है कि अब उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में सिफारिशों का दौर धीमा पड़ रहा है और अधिकारियों को केवल अपने कार्य और आचरण के बल पर ही टिकना होगा।
यह एक सिस्टम बनाम सिफारिश की लड़ाई थी — और इस बार सिस्टम की जीत हुई।