बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी (BBAU), लखनऊ — एक ऐसा संस्थान जिसे ज्ञान, अनुसंधान और संवैधानिक मूल्यों की आधारशिला माना जाता है — आज एक ऐसे मामले के केंद्र में है जिसने पूरे शैक्षणिक जगत को हिला कर रख दिया है। विश्वविद्यालय के पर्यावरण माइक्रोबायोलॉजी विभाग के पीएचडी छात्र द्वारा विभागाध्यक्ष पर लगाए गए यौन शोषण और मानसिक उत्पीड़न के गंभीर आरोप न केवल चौंकाने वाले हैं, बल्कि हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली के भीतर मौजूद सत्ता संरचना के काले पक्ष को भी उजागर करते हैं।
यह मामला इस दृष्टि से भी बेहद असामान्य है कि यहां पीड़ित एक पुरुष शोध छात्र है, जो एक वरिष्ठ अकादमिक द्वारा लगातार शोषण का शिकार होने का दावा कर रहा है। ऐसे प्रकरणों में, अक्सर पीड़िता छात्राएं होती हैं, लेकिन इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यौन उत्पीड़न लिंग-विशेष नहीं होता — यह सत्ता और भय का शोषण होता है।
शोध छात्र आशीष कुमार द्वारा दर्ज आरोप बेहद गंभीर हैं — अश्लील वीडियो दिखाना, मानसिक दबाव डालना, अनैतिक संबंधों के लिए मजबूर करना और इनकार करने पर शैक्षणिक बाधाएं उत्पन्न करना। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि विश्वविद्यालय प्रशासन और संबंधित पुलिस थाने की भूमिका भी इस पूरे प्रकरण में संदेह के घेरे में है। अगर सच में शिकायत मिलने के बावजूद एफआईआर दर्ज नहीं हुई, तो यह केवल लापरवाही नहीं, बल्कि न्याय के खिलाफ सक्रिय प्रतिरोध है।
आश्चर्यजनक यह है कि कुलपति द्वारा मामले को संज्ञान में लेने और जांच समिति गठित करने की बात कही जा रही है, लेकिन अब तक आरोपी प्रोफेसर के खिलाफ निलंबन जैसी कोई प्राथमिक अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हुई है। यह एक बुनियादी सवाल खड़ा करता है—क्या एक शक्तिशाली शिक्षाविद को ‘पद का प्रभाव’ न्याय प्रक्रिया से ऊपर ले जाता है?
यह भी विचारणीय है कि यदि आशीष जैसा उच्च शिक्षित छात्र, जो अपने अधिकारों और संस्थागत प्रक्रियाओं से भलीभांति परिचित है, एक वर्ष तक चुप रहने को मजबूर रहा, तो अन्य छात्रों की स्थिति क्या होगी? क्या वे ऐसे संस्थानों में सुरक्षित हैं?
इस पूरे प्रकरण को केवल एक विश्वविद्यालय की घटना मानकर छोड़ देना उचित नहीं होगा। यह एक संकेत है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था के भीतर सत्ता का दुरुपयोग किस हद तक छात्रों की स्वतंत्रता, आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है।
जरूरत इस बात की है कि विश्वविद्यालय और प्रशासन, दोनों इस मामले को एक उदाहरण बनाने का कार्य करें। आरोपी को निष्पक्ष जांच तक पद से हटाना प्राथमिक आवश्यकता है ताकि जांच स्वतंत्रता और पारदर्शिता से आगे बढ़ सके। इसके अलावा, लखनऊ पुलिस को भी इस मामले में निष्क्रियता के आरोपों से उबरते हुए अपनी भूमिका को संवैधानिक मर्यादाओं के अनुरूप निभाना चाहिए।
यदि इस मामले में न्याय होता है, तो यह न केवल आशीष कुमार के साहस की जीत होगी, बल्कि उन अनगिनत छात्रों के लिए भी उम्मीद की किरण बनेगा, जो शोषण की पीड़ा तो सहते हैं पर आवाज उठाने का साहस नहीं कर पाते।
शिक्षा के मंदिरों को यदि पवित्र बनाए रखना है, तो हमें उन लोगों से इन संस्थानों को मुक्त कराना होगा जो अपने पद का इस्तेमाल अधिकार नहीं, अत्याचार के लिए करते हैं। यही समय है जब BBAU को यह सिद्ध करना होगा कि उसके आदर्श केवल दीवारों पर लिखे नारे नहीं, बल्कि उसकी कार्यप्रणाली का हिस्सा हैं।