भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था में निजी अस्पतालों की भूमिका बहुत बड़ी मानी जाती है। लेकिन जब यह भूमिका मानवीय संवेदनाओं से परे होकर सिर्फ लालच की गली में भटकने लगे, तो न सिर्फ चिकित्सा-सेवा बदनाम होती है बल्कि इंसानियत भी शर्मसार होती है। फर्रुखाबाद के कायमगंज में न्यू परी हॉस्पिटल में प्रसव के बाद एक जच्चा-बच्चा की मौत इसी शर्मनाक हकीकत की ताजा मिसाल है। सवाल उठता है कि क्या यह मौत एक चिकित्सकीय दुर्घटना थी या फिर सुनियोजित लापरवाही का नतीजा? और यदि यह लापरवाही है, तो इसका जिम्मेदार कौन है—अस्पताल संचालक? स्वास्थ्य विभाग? या वह पूरी व्यवस्था जो ऐसे ‘गोरखधंधों’ को आंख मूंद कर संरक्षण देती है?
बरखेड़ा गांव निवासी ब्रजकिशोर की पत्नी राखी को 28 मई को प्रसव पीड़ा हुई। उसे कायमगंज के न्यू परी हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया, जहाँ इलाज के नाम पर परिजनों से 25 हजार रुपए ऐंठे गए। कुछ घंटों के भीतर ही राखी और उसका नवजात बच्चा दोनों इस दुनिया से विदा हो गए। अस्पताल प्रशासन न सिर्फ इलाज में विफल रहा, बल्कि घटना के बाद संचालक पुष्पेंद्र शाक्य समेत पूरा स्टाफ अस्पताल से फरार हो गया। क्या ये किसी सजग स्वास्थ्य प्रणाली की तस्वीर हो सकती है?
यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी इसी अस्पताल में दो बार ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, और हर बार खानापूर्ति के नाम पर अस्पताल सील कर दिया गया, फिर कुछ महीनों बाद वही अस्पताल दोबारा खुलेआम चलने लगा। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर किसके संरक्षण में यह गोरखधंधा फल-फूल रहा है?
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि न्यू परी हॉस्पिटल जैसी अवैध संस्थाएं स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही और मिलीभगत की देन हैं। इस अस्पताल में न तो मानक ऑपरेशन थिएटर था, न प्रशिक्षित स्टाफ, और न ही कोई लाइसेंस से जुड़ी पारदर्शिता। बावजूद इसके, यह वर्षों से ‘प्रसव केंद्र’ के रूप में काम कर रहा था। सवाल उठता है—क्या स्वास्थ्य विभाग को इसकी जानकारी नहीं थी? यदि थी, तो फिर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? और यदि जानकारी नहीं थी, तो यह और भी शर्मनाक है कि ऐसे ‘मौत के अस्पताल’ विभाग की नाक के नीचे बेधड़क चलते हैं।
जो अस्पताल महज चार कमरों में संचालित हो रहा हो, जिसमें एक छोटा सा मेडिकल स्टोर और मामूली सुविधा वाला ऑपरेशन थिएटर हो, क्या वह किसी भी प्रकार से गंभीर इलाज या प्रसव जैसी जटिल प्रक्रिया के लिए उपयुक्त माना जा सकता है।
इस पूरे प्रकरण में पुलिस की भूमिका संतुलित कही जा सकती है। मौके पर पहुंची मंडी चौकी व कस्बा चौकी की टीम ने शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेजा और प्रारंभिक जांच की। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या सिर्फ पंचनामा भर देने से इंसाफ हो जाएगा? क्या इस मामले में अस्पताल संचालक पर गैर इरादतन हत्या जैसी धाराओं में मामला दर्ज कर उसे गिरफ्तार किया जाएगा? या फिर यह मामला भी अन्य घटनाओं की तरह कुछ दिन सुर्खियों में रहने के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा?
प्रसूता राखी और उसके नवजात की मौत के बाद परिजनों ने छह घंटे तक न्यू परी हॉस्पिटल के बाहर हंगामा किया। लेकिन अस्पताल प्रशासन का कोई व्यक्ति पीड़ित परिवार से न मिला, न संवेदना जताई। यह अमानवीयता की पराकाष्ठा है। परिजनों की पीड़ा यह नहीं थी कि उन्हें सिर्फ अपने परिजनों की मौत का दुख था, बल्कि उन्हें यह भी कचोट रहा था कि यह मौत रोकी जा सकती थी—अगर अस्पताल में मानक सुविधा होती, प्रशिक्षित स्टाफ होता, और मरीजों से पैसा कमाने की जगह सेवा देने का भाव होता।
कायमगंज जैसे छोटे शहरों में न्यू परी हॉस्पिटल जैसे सैकड़ों ‘मौत के अस्पताल’ सक्रिय हैं, जो न किसी मानक पर खरे उतरते हैं और न ही किसी व्यवस्था की पकड़ में आते हैं। इनमें से अधिकतर अस्पताल केवल दिखावे के लिए चलते हैं, लेकिन अंदर से वे एक शोषण का अड्डा हैं, जहां पैसे के बदले जिंदगी की गारंटी नहीं दी जाती।
स्वास्थ्य विभाग के पास हर अस्पताल का पंजीकरण, लाइसेंसिंग और निरीक्षण का अधिकार है। फिर क्या वजह है कि फर्रुखाबाद जैसे जिले में ऐसे ‘अवैध अस्पताल’ खुलेआम कार्यरत हैं?
निजी अस्पतालों की मनमानी और लापरवाही को रोकने के लिए जरूरी है कि, हर निजी अस्पताल का साल में दो बार अनिवार्य निरीक्षण हो।लाइसेंस केवल सुविधा और स्टाफ की शुद्ध जांच के बाद ही जारी किए जाएं। पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने के लिए कोर्ट का हस्तक्षेप हो। लापरवाह और झोलाछाप डॉक्टरों पर कठोर कानूनी कार्रवाई की जाए। लोगों को सिखाया जाए कि मान्यता प्राप्त अस्पताल और डॉक्टर की पहचान कैसे करें।
एक लोकतांत्रिक और संवेदनशील राष्ट्र की परिभाषा तब पूरी होती है जब वहाँ सबसे गरीब नागरिक की जान भी उतनी ही कीमती मानी जाती है जितनी किसी अमीर या रसूखदार की। लेकिन जब अस्पताल पैसे के लिए इंसानों की जान से खिलवाड़ करने लगें, जब स्वास्थ्य विभाग चुप्पी साध ले, और जब प्रशासन केवल पंचनामा और सील करने की रस्म अदायगी करे—तो ये संकेत हैं कि व्यवस्था बीमार है।
राखी और उसके नवजात की मौत सिर्फ एक दुखद घटना नहीं, बल्कि एक सामाजिक व प्रशासनिक विफलता है। यह उस सड़ांध की कहानी है जो हमारी स्वास्थ्य प्रणाली में घर कर चुकी है। अब समय है कि ऐसी घटनाओं को सिर्फ खबर बनाकर छोड़ने की बजाय, इन्हें बदलाव का आधार बनाया जाए। वरना कल फिर कोई और राखी, किसी और परी हॉस्पिटल में मौत की गोद में चली जाएगी—और हम फिर सिर्फ आंसू बहाने और रिपोर्ट लिखने तक सीमित रह जाएंगे।