देश की ऊर्जा व्यवस्था, विशेषकर बिजली (Electricity) वितरण और संचालन, राष्ट्रीय विकास की रीढ़ है। इसी व्यवस्था को मजबूत बनाए रखने के लिए लाखों संविदा कर्मी दिन-रात काम करते हैं। इनमें से अधिकतर कर्मी अपनी जान जोखिम में डालकर काम करते हैं, लेकिन इसके बदले उन्हें उचित वेतन, सुविधाएं और सम्मान नहीं मिलता। संविदा कर्मियों की स्थिति सुधारने और निजीकरण के दुष्प्रभावों के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए 16 दिसंबर से 23 दिसंबर 2024 तक “निजीकरण विरोधी जागरूकता अभियान” शुरू करने का फैसला स्वागत योग्य है। यह अभियान न केवल संविदा कर्मियों के अधिकारों के लिए संघर्ष है, बल्कि देश की ऊर्जा व्यवस्था को निजीकरण के खतरे से बचाने की दिशा में भी एक कदम है।
विद्युत संविदा कर्मचारी महासंघ के वरिष्ठ नेता और प्रांतीय अध्यक्ष आर.एस. राय के नेतृत्व में हुए इस निर्णय ने संविदा कर्मियों की दशा पर ध्यान केंद्रित किया है। हर साल बिजली संचालन और वितरण कार्य में करीब 1400 संविदा कर्मी अपनी जान गंवाते हैं। यह आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला और निंदनीय है। इसके बावजूद इन कर्मियों को मनरेगा मज़दूरों से भी कम वेतन दिया जाता है।
बैठक में यह मांग उठाई गई कि संविदा श्रमिकों का न्यूनतम वेतन 22,000 रुपये प्रति माह और लाइनमैन, एसएसओ तथा कंप्यूटर ऑपरेटर का वेतन 25,000 रुपये प्रति माह किया जाए। इसके अलावा, तृतीय श्रेणी नियमित कर्मचारियों का नियुक्ति ग्रेड पे 3000 रुपये और तृतीय ग्रेड पे 6600 रुपये किया जाए। ये मांगे न केवल वाजिब हैं, बल्कि संविदा कर्मियों को वित्तीय और सामाजिक सुरक्षा देने के लिए आवश्यक हैं।
बिजली जैसे बुनियादी ढांचे का निजीकरण केवल आर्थिक नीतियों का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह जनता के हितों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। निजीकरण के बाद बिजली वितरण की दरें बढ़ती हैं, जिससे आम जनता पर वित्तीय दबाव बढ़ता है। दूसरी ओर, संविदा कर्मियों के शोषण का स्तर भी बढ़ जाता है।
निजीकरण के दुष्प्रभाव केवल आर्थिक ही नहीं हैं। यह सामाजिक असमानता को भी बढ़ावा देता है। निजी कंपनियां अधिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से कर्मचारियों की सुविधाओं को अनदेखा करती हैं। संविदा कर्मियों को स्थायी रोजगार, वेतन वृद्धि, और अन्य लाभ देने की बजाय ठेका आधारित मॉडल को बढ़ावा दिया जाता है।
संविदा कर्मियों की स्थिति भारतीय श्रम व्यवस्था की असमानताओं का दर्पण है। जहां एक ओर स्थायी कर्मचारियों को विभिन्न लाभ और सुविधाएं दी जाती हैं, वहीं दूसरी ओर संविदा कर्मियों को न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। इसके अलावा, संविदा कर्मियों को स्वास्थ्य सुविधाएं, दुर्घटना बीमा, और अन्य बुनियादी लाभ भी नहीं दिए जाते।
बैठक में इस बात पर भी चिंता व्यक्त की गई कि संविदा कर्मियों को नियमित कर्मचारियों की तुलना में कहीं अधिक जोखिम उठाना पड़ता है। बिजली के खंभों पर काम करना, टूटे हुए तारों की मरम्मत करना, और अन्य खतरनाक कार्यों में उनकी भूमिका प्रमुख होती है। इसके बावजूद उनके जीवन की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते।
संविदा कर्मियों की स्थिति के लिए सरकार की उदासीनता भी जिम्मेदार है। ऊर्जा मंत्रालय और संबंधित विभाग इन कर्मियों की समस्याओं को अनदेखा करते रहे हैं। संविदा कर्मियों के साथ किए गए समझौतों का पालन नहीं किया जाता, और उनकी मांगों को नियमित रूप से टाल दिया जाता है।
हाल ही में हुए इस फैसले में यह मांग भी रखी गई है कि ऊर्जा मंत्री और विभागाध्यक्ष संविदा कर्मियों की मांगों को तुरंत पूरा करें। यह केवल संविदा कर्मियों के लिए ही नहीं, बल्कि ऊर्जा विभाग की दक्षता और सुरक्षा के लिए भी आवश्यक है।
16 दिसंबर से शुरू होने वाला “निजीकरण विरोधी जागरूकता अभियान” इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस अभियान का उद्देश्य न केवल संविदा कर्मियों की समस्याओं को उजागर करना है, बल्कि जनता को भी यह समझाना है कि निजीकरण किस तरह से उनके हितों को प्रभावित करेगा।
यह अभियान सभी जिलों और परियोजना स्थलों पर आयोजित किया जाएगा, जिसमें संविदा कर्मी और अन्य श्रमिक संगठन भाग लेंगे। इस अभियान का नेतृत्व नवल किशोर सक्सेना, पुनीत राय, भोला सिंह कुशवाहा, मोहम्मद काशिफ़, और अन्य वरिष्ठ नेताओं द्वारा किया जा रहा है।
इस समस्या का समाधान केवल सरकार और श्रमिक संगठनों के सामूहिक प्रयास से ही संभव है। सरकार को चाहिए कि वह संविदा कर्मियों की मांगों को तुरंत स्वीकार करे और उनके लिए एक स्थायी और सुरक्षित रोजगार प्रणाली बनाए। इसके साथ ही, निजीकरण की प्रक्रिया को रोकना और सार्वजनिक क्षेत्र को सुदृढ़ करना आवश्यक है।
श्रमिक संगठनों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनका आंदोलन शांतिपूर्ण और व्यवस्थित हो। यह अभियान केवल संविदा कर्मियों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए है। जनता को भी इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए, क्योंकि निजीकरण का प्रभाव केवल कर्मचारियों तक सीमित नहीं रहता।
यह आंदोलन केवल संविदा कर्मियों के लिए उनके अधिकारों की लड़ाई नहीं है। यह देश की ऊर्जा सुरक्षा, आर्थिक स्थिरता, और सामाजिक न्याय के लिए भी एक महत्वपूर्ण कदम है।
सरकार को संविदा कर्मियों की समस्याओं को गंभीरता से लेना चाहिए और उनकी मांगों को तुरंत पूरा करना चाहिए। साथ ही, श्रमिक संगठनों को अपने आंदोलन को जनता के साथ जोड़कर इसे एक राष्ट्रीय अभियान बनाना चाहिए।
यदि इस मुद्दे को हल नहीं किया गया, तो न केवल संविदा कर्मियों की समस्याएं बढ़ेंगी, बल्कि देश की ऊर्जा व्यवस्था भी कमजोर होगी। यह समय है कि सरकार, जनता, और श्रमिक संगठन मिलकर एक नई शुरुआत करें और संविदा कर्मियों के अधिकारों और सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाएं।