– आरक्षण के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व में पिछड़ों की उपेक्षा
– प्रभावी चेहरों की कमी और सत्ताधीशों की रणनीति।
– शरद कटियार
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण की अवधारणा को लागू किया गया था। लेकिन दशकों बाद भी, पिछड़ी जातियों को वास्तविक राजनीतिक नेतृत्व में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। यह विडंबना है कि देश की राजनीति में पिछड़ी जातियों का इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में होता है, परंतु नेतृत्व देने से कतराया जाता है।
पिछड़ी जातियों की जनसंख्या भारत की कुल आबादी का लगभग 52% है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और अन्य सरकारी आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि ये जातियां न केवल जनसंख्या में बहुसंख्यक हैं, बल्कि चुनावी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। इसके बावजूद, इन्हें सत्ताधारी दलों द्वारा केवल दिखावे के लिए नेतृत्व के नाम पर कमजोर और निर्भर चेहरे दिए जाते हैं।
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने हाल के वर्षों में पिछड़े वर्गों से नेताओं को सामने लाने की कोशिश की है, लेकिन इन्हें नेतृत्व देने में असफल रही है। पार्टी ने कई पिछड़ी जातियों के नेताओं को मंत्री पद दिए, लेकिन उन्हें सशक्त बनाने के बजाय सीमित जिम्मेदारियों तक सीमित रखा। उदाहरण के तौर पर, इन नेताओं को न तो स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की अनुमति दी जाती है और न ही उन्हें पार्टी के नीति-निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान मिलता है।
यूपी में 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में पिछड़ी जातियों का समर्थन हासिल करने के लिए बीजेपी ने कड़ी मेहनत की, लेकिन यह समर्थन वास्तविक सशक्तिकरण में तब्दील नहीं हुआ। पिछड़ी जातियों के प्रभावशाली और मजबूत नेताओं को मौका देने के बजाय, कमजोर और आज्ञाकारी चेहरों को आगे बढ़ाया गया, जो अपनी जातियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने में विफल रहे।
पिछड़ों की तरह दलित समुदाय भी इस राजनीति का शिकार है। दलितों को केवल सांकेतिक प्रतिनिधित्व दिया गया है। उन्हें मंत्री पद तो दिए जाते हैं, लेकिन उनकी नीतियों और अधिकारों को लागू करने का कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया जाता। 2019 में रामविलास पासवान और थावरचंद गहलोत जैसे नाम चर्चा में रहे, लेकिन इन नेताओं को भी सशक्त निर्णय लेने का अधिकार नहीं मिला।
बीजेपी के अलावा अन्य राजनीतिक दलों ने भी दलितों और पिछड़ों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया है। इससे स्पष्ट होता है कि दलितों और पिछड़ों को केवल वोट बैंक समझा गया है, नेतृत्व के अवसर नहीं दिए गए।
आरक्षण का उद्देश्य था कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाया जाए। हालांकि, राजनीतिक पार्टियों ने इसे मात्र वोट हासिल करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, कई बार पिछड़ी जातियों से नेताओं को मंत्री या पदाधिकारी तो बनाया गया, लेकिन वे वास्तविक नीति-निर्माण में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में असमर्थ रहे।
2019 में संसद में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व लगभग 28% था, जो उनकी आबादी की तुलना में कम है। यह दर्शाता है कि आरक्षण के बावजूद प्रभावी राजनीतिक भागीदारी अभी भी दूर की कौड़ी है।
पिछड़ी जातियों से अक्सर ऐसे नेताओं को आगे बढ़ाया जाता है, जो खुद कमजोर, अनुभवहीन या सत्ताधारी पार्टियों पर निर्भर रहते हैं। ये नेता अपनी ही जातियों के मुद्दे उठाने में असफल रहते हैं। उदाहरण के तौर पर, भूमि सुधार, शिक्षा में सुधार और रोजगार जैसे मुद्दे पिछड़ी जातियों के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इन पर ठोस कदम नहीं उठाए गए।
राजनीति में पिछड़ों की भूमिका: आंकड़ों की नजर से ,राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) के आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में पिछड़ी जातियों की शिक्षा दर सिर्फ 50% के करीब है, जो सामान्य वर्गों से काफी कम है। यह सीधे उनके राजनीतिक सशक्तिकरण को प्रभावित करता है।
पिछड़ी जातियां आज भी आर्थिक रूप से कमजोर हैं। उनके पास कुल भूमि का मात्र 20% हिस्सा है, जबकि 70% से अधिक कृषि मजदूर इसी वर्ग से आते हैं।
2019 के लोकसभा चुनाव में 84 सांसद पिछड़ी जातियों से चुने गए, लेकिन इनमें से अधिकतर प्रमुख नीति-निर्माण में प्रभावशाली भूमिका नहीं निभा सके।
राजनीतिक पार्टियों को अपने आंतरिक ढांचे में पिछड़ी जातियों के योग्य और प्रभावशाली नेताओं को जगह देनी चाहिए।
पिछड़ी जातियों को केवल मंत्री पद देकर संतुष्ट करने के बजाय, उन्हें निर्णय लेने की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।
शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में पिछड़ों की स्थिति सुधारने के लिए विशेष योजनाएं लागू की जानी चाहिए।
पिछड़ी जातियों और दलितों का आरक्षण सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन यह तब तक अधूरा रहेगा जब तक उन्हें वास्तविक राजनीतिक नेतृत्व नहीं दिया जाता। वोट बैंक की राजनीति ने इन्हें केवल संख्या तक सीमित कर दिया है। प्रभावी नेतृत्व के अभाव और राजनीतिक दलों की कमजोर रणनीति ने इन्हें मुख्यधारा में आने से रोक रखा है।
भारत की राजनीति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि पिछड़ों और दलितों को उनके अधिकार और नेतृत्व दोनों दिया जाए। तभी सही मायनों में लोकतंत्र मजबूत होगा।
– लेखक दैनिक यूथ इंडिया के मुख्य संपादक हैं।
सामाजिक न्याय और समानता के लिए आरक्षण के बाबजूद पिछड़े और दलितों संग भेदभाव
