पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपराध की दुनिया में एक चर्चित नाम अनुपम दुबे एक बार फिर कानूनी जांच के दायरे में आ सकता है। लगभग बीस साल पुराने दोहरे हत्याकांड में उसके खिलाफ फिर से जांच की मांग उठी है। पीड़ित पक्ष का दावा है कि उस समय वे नाबालिग थे और कोई पैरवी करने वाला नहीं था, जिसका फायदा उठाकर मामले को जबरन दबा दिया गया। अब जब दोबारा जांच की मांग उठी है, तो सवाल यह है कि क्या इस बार न्याय की राह में कोई बाधा आएगी या कानून की पकड़ से यह अपराधी बच नहीं पाएगा?
अनुपम दुबे का नाम उत्तर प्रदेश के खतरनाक अपराधियों में गिना जाता है। हत्या, लूट, रंगदारी और गैंगवार जैसे गंभीर अपराधों में उसका नाम शामिल रहा है। वह फिलहाल मथुरा जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है।
अनुपम पर हत्या, हत्या के प्रयास, अवैध हथियार रखने और संगठित अपराध जैसे गंभीर मामलों में मुकदमे दर्ज हैं। उसकी आपराधिक छवि इतनी मजबूत है कि उसे एक समय उत्तर प्रदेश के मोस्ट वांटेड अपराधियों की सूची में रखा गया था। कानून के शिकंजे में आने से पहले तक उसका खौफ इतना था कि लोग उसके खिलाफ गवाही देने से भी डरते थे।
6 अगस्त 2005 को मैनपुरी जिले के बेवर थाना क्षेत्र के नवीगंज में एक दंपति की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इस मामले में अनुपम दुबे और उसके सहयोगियों पर संलिप्तता का आरोप लगा था। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, अपराधियों ने लगातार 16 राउंड से ज्यादा गोलियां दागी, जिससे इलाके में भारी दहशत फैल गई थी।
हत्या के बाद, मामले की जांच पुलिस महानिरीक्षक (IG) आगरा के आदेश पर एटा में स्थानांतरित कर दी गई थी। कुछ ही महीनों बाद, 5 फरवरी 2006 को पुलिस ने अंतिम रिपोर्ट (FR) दाखिल कर दी, जिसे न्यायालय ने 4 अप्रैल 2006 को स्वीकार कर लिया। इसके बाद 27 जुलाई 2013 को न्यायालय ने इस केस की फाइल को नष्ट कर दिया।
लेकिन अब मृतकों के परिवार ने न्यायालय में आवेदन देकर जांच दोबारा खोलने की मांग की है। परिजनों का आरोप है कि वे उस समय नाबालिग थे और कोई कानूनी सहारा नहीं था, जिसके चलते अपराधियों ने जबरन एफिडेविट तैयार करवाकर मामले को दबा दिया।
यह पहला मौका नहीं है जब किसी हाई-प्रोफाइल आपराधिक मामले की जांच पर सवाल उठे हैं। लेकिन इस केस में जिस तरीके से अंतिम रिपोर्ट लगाई गई और फिर न्यायालय द्वारा फाइल नष्ट की गई, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या उस समय जांच में कोई गड़बड़ी हुई थी?
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यदि उस वक्त साक्ष्य और गवाहों को प्रभावित करने की कोशिश की गई थी, तो यह एक गंभीर मामला बन सकता है। यदि पीड़ित परिवार के आरोप सही साबित होते हैं, तो कानून में ऐसी व्यवस्था है कि नए सबूतों के आधार पर केस फिर से खोला जा सकता है।
यदि अदालत इस मामले की दोबारा जांच का आदेश देती है, तो अनुपम दुबे के लिए कानूनी मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।
कानूनी जानकारों के अनुसार,यदि अदालत को यह लगता है कि पुरानी जांच में गंभीर खामियां थीं, तो वह राज्य सरकार को फिर से जांच का आदेश दे सकती है।यदि नए सबूत मिलते हैं, तो मामले को फिर से चार्जशीट में बदलकर ट्रायल शुरू किया जा सकता है।अगर यह साबित होता है कि एफिडेविट जबरन लिया गया था, तो यह न्याय में बाधा डालने (Obstruction of Justice) का मामला बन सकता है।दोषी पाए जाने पर अनुपम दुबे पर नई धाराएं लगाई जा सकती हैं और उसकी सजा भी बढ़ाई जा सकती है।
यह मामला एक बड़ा उदाहरण है कि कैसे प्रभावशाली अपराधी कानून के शिकंजे से बच निकलते हैं। 2005 में जो घटना हुई थी, उसका ट्रायल शायद अलग होता यदि पीड़ित परिवार को कानूनी सहायता मिली होती।
लेकिन अब जब मामला दोबारा उठाया गया है, तो यह प्रशासन और न्यायपालिका के लिए एक परीक्षा की घड़ी है। क्या एक बार फिर कोई प्रभावशाली हाथ इस जांच को दबा देगा? या फिर इस बार पीड़ितों को इंसाफ मिलेगा? यह देखना दिलचस्प होगा।
भारत में अपराध और कानून के बीच की लड़ाई हमेशा से रही है। कई मामलों में देखा गया है कि जब तक नए सबूत सामने नहीं आते, तब तक न्याय में देरी होती है। यह मामला भी उसी कड़ी का एक हिस्सा है।
यदि न्यायालय इस मामले की फिर से जांच का आदेश देती है, तो यह उत्तर प्रदेश की न्याय व्यवस्था के लिए एक बड़ा कदम होगा। इससे यह संदेश जाएगा कि कानून की पकड़ से कोई भी बच नहीं सकता, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो।
अब आंखें न्यायालय और प्रशासन पर टिकी हैं कि वे इस मामले में किस दिशा में आगे बढ़ते हैं।