शरद कटियार
उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी (सपा) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी ने कई चुनावी सफलताएँ देखी हैं, लेकिन हाल के दिनों में उनकी राजनीतिक रणनीति को लेकर सवाल उठने लगे हैं। विशेष रूप से, ‘पीडीए’ (पार्टी फॉर डेमोक्रेटिक एंगेजमेंट) मॉडल को लेकर अखिलेश यादव की बयानबाजी और उनके नेतृत्व पर पार्टी के अंदर और बाहर असंतोष दिखाई दे रहा है।
5 फरवरी को अयोध्या की मिल्कीपुर विधानसभा में होने वाले उपचुनाव से पहले अखिलेश यादव ने एक सोशल मीडिया पोस्ट में अयोध्या में तैनात अधिकारियों की जातीय पृष्ठभूमि का जिक्र किया। उन्होंने इसे “पक्षपात” और “नाइंसाफी” का उदाहरण बताते हुए भाजपा सरकार पर हमला बोला। उनके अनुसार, प्रशासन में उच्च पदों पर केवल एक खास जाति के लोगों को तैनात किया गया है, जिससे अन्य वर्गों के साथ भेदभाव किया जा रहा है।
इस बयान के जरिए अखिलेश यादव ने पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों को यह संदेश देने की कोशिश की कि भाजपा सरकार उनके हितों की अनदेखी कर रही है। उन्होंने इस बयान के साथ ही पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) गठजोड़ को मजबूत करने की बात कही और भाजपा को सत्ता से हटाने की अपील की।
हालांकि, अखिलेश यादव का यह बयान जितना राजनीतिक रूप से प्रभावी होने की उम्मीद थी, उतना ही यह विवादों में भी आ गया। पार्टी के अंदर और बाहर, इस बयान को लेकर कई प्रतिक्रियाएँ सामने आईं।
सपा के सहयोगी दल अपना दल (कमेरावादी) की विधायक पल्लवी पटेल ने अखिलेश यादव की इस रणनीति पर नाराजगी जताई। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि समाजवादी पार्टी ने राज्यसभा और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ ऊँची जाति के लोगों को ही भेजा, जबकि पार्टी का मुख्य नारा हमेशा पिछड़े और गरीबों के हक की लड़ाई लड़ना रहा है।
पल्लवी पटेल का बयान अखिलेश यादव के नेतृत्व पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है, क्या सपा केवल वोट बैंक की राजनीति कर रही है? क्या पार्टी की नीतियाँ सिर्फ चुनावी लाभ तक सीमित हैं?क्या सपा में पिछड़े और दलित वर्गों को समान प्रतिनिधित्व मिल रहा है?अगर देखा जाए, तो समाजवादी पार्टी ने हाल के वर्षों में कई अहम राजनीतिक फैसले लिए हैं, लेकिन उन फैसलों को लेकर पार्टी के भीतर भी मतभेद बढ़ते गए हैं। राज्यसभा में भेजे गए सदस्यों की जातीय पृष्ठभूमि से लेकर संगठन में किए गए बदलाव तक, हर मुद्दे पर विरोध के स्वर उभरते रहे हैं।
उत्तर प्रदेश की जनता ने 2022 के विधानसभा चुनावों में सपा को बड़ा समर्थन दिया था, लेकिन इसके बावजूद भाजपा सत्ता में बनी रही। 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारियों के बीच अखिलेश यादव के इस तरह के बयान जनता के लिए क्या संदेश देते हैं, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है।
पिछले कुछ चुनावी आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यूपी की राजनीति में जातीय समीकरण काफी महत्वपूर्ण हैं,2022 विधानसभा चुनावों में सपा को लगभग 32% वोट शेयर मिला था, जबकि भाजपा को 41% वोट मिले।पिछड़े वर्गों में यादवों ने सपा को समर्थन दिया, लेकिन अन्य ओबीसी समूहों (कुर्मी, लोध, निषाद) ने भाजपा की ओर रुख किया।
दलितों में जाटव समुदाय बसपा के साथ जुड़ा रहा, लेकिन गैर-जाटव दलितों का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ रहा।2019 के लोकसभा चुनावों में सपा-बसपा गठबंधन को सिर्फ 15 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा ने 62 सीटों पर जीत दर्ज की।
इन आंकड़ों से साफ है कि अगर सपा को आगामी चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना है, तो उसे अपने जातीय गठबंधन को मजबूत करना होगा। लेकिन क्या अखिलेश यादव के ऐसे बयान पार्टी को मजबूत करेंगे या और कमजोर करेंगे, यह बड़ा सवाल है।
‘पीडीए’ रणनीति अखिलेश यादव का नया राजनीतिक प्रयोग है, जिसमें वह पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं। यह मॉडल 2024 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। लेकिन इस रणनीति की कुछ कमियाँ भी नजर आ रही हैं।
केवल यादव वोट बैंक पर निर्भरता सपा के लिए नुकसानदायक हो सकती है। कुर्मी, लोध और अन्य ओबीसी जातियों के भाजपा के साथ जुड़े रहने से सपा को नुकसान हो सकता है। दलित वोट बैंक की अस्थिरता: बसपा के कमजोर होने से सपा को फायदा हो सकता है, लेकिन मायावती की निष्क्रियता का लाभ भाजपा भी उठा सकती है।अल्पसंख्यक वोटों में असमंजस: मुस्लिम समुदाय के कई मतदाता सपा को भाजपा के खिलाफ विकल्प मानते हैं, लेकिन कुछ वर्ग कांग्रेस और AIMIM की ओर भी देख रहे हैं।अखिलेश यादव ने भाजपा पर प्रशासनिक पक्षपात का आरोप लगाते हुए जो बयान दिया, वह निश्चित रूप से बहस का विषय बना। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या सपा खुद अपने संगठन में सामाजिक न्याय को पूरी तरह लागू कर पाई है?
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार,
स

पा के संगठन में भी कई महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ यादव समुदाय का प्रभुत्व है।राज्यसभा और अन्य उच्च पदों पर पिछड़े वर्गों से ज्यादा सवर्णों को भेजा गया।
यदि समाजवादी पार्टी खुद अपनी आंतरिक नीतियों में पारदर्शिता और समानता नहीं रखती, तो जनता से ‘सामाजिक न्याय’ की अपील कितनी प्रभावी होगी, यह सोचने का विषय है।
समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है, और अखिलेश यादव एक कद्दावर नेता हैं। लेकिन हाल के घटनाक्रम बताते हैं कि उनकी रणनीति में स्पष्टता और विश्वसनीयता की कमी नजर आ रही है।
अगर सपा को आगामी चुनावों में भाजपा को कड़ी टक्कर देनी है, तो उसे निम्नलिखित कदम उठाने होंगे: जैसे पीडीए रणनीति को केवल बयानबाजी तक सीमित न रखते हुए, संगठन में भी लागू करना होगा।पार्टी के अंदर उठ रही असंतोष की आवाजों को अनदेखा करने की बजाय, संवाद स्थापित करना होगा। पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के साथ-साथ सभी वर्गों को समान प्रतिनिधित्व देना होगा।भाजपा सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ प्रभावी और ठोस विपक्ष की भूमिका निभानी होगी।अगर समाजवादी पार्टी इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो वह निश्चित रूप से 2024 के लोकसभा चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत कर सकती है। लेकिन अगर पार्टी केवल जातिगत राजनीति के नाम पर बयानबाजी करती रही, तो यह रणनीति उलटी भी पड़ सकती है।
लेखक दैनिक यूथ इंडिया के प्रधान संपादक है