प्रशांत कटियार
भारतीय समाज, जो कभी पारिवारिक मूल्यों, नैतिक शिक्षा और आपसी सम्मान के लिए जाना जाता था, आज रिश्तों में स्वार्थ, भावनाओं में कमी और कानूनों के असंतुलन के चलते एक गहरे सामाजिक संकट से गुजर रहा है, जहाँ आधुनिकता की चकाचौंध और सोशल मीडिया की झूठी चमक ने न केवल रिश्तों को खोखला कर दिया है बल्कि चरित्र निर्माण, अनुशासन और सामाजिक ज़िम्मेदारी को भी हाशिए पर पहुँचा दिया है, और इसका सबसे अधिक असर उन पुरुषों पर पड़ रहा है जिनकी पीड़ा को कोई मंच, कानून या सहानुभूति नहीं मिलती। हर दिन अख़बारों और चैनलों में आने वाली घटनाएँ जहाँ पत्नी द्वारा पति की हत्या, मंगेतर द्वारा ब्लैकमेलिंग, झूठे बलात्कार व छेड़छाड़ के आरोप, और बुज़ुर्ग माता- पिता पर हिंसा जैसे मामले यह दर्शाते हैं कि अब केवल महिलाएँ ही नहीं, पुरुष भी घरेलू, मानसिक और सामाजिक शोषण का शिकार हो रहे हैं, पर उनके लिए न तो कोई संवैधानिक आयोग है, न सहायता केंद्र और न ही कोई राष्ट्रीय सहानुभूति।
पारंपरिक भारतीय समाज में घर की पहली पाठशाला माँ की गोद और पिता का अनुशासन हुआ करते थे। लेकिन अब वर्किंग पेरेंट्स के पास समय नहीं, संयुक्त परिवार बिखर चुके हैं और सोशल मीडिया ही गुरु बन चुका है। इससे बच्चों में अनुशासन, आत्म-संयम और संबंधों की पवित्रता खत्म हो रही है।अब प्यार एक भावनात्मक संबंध नहीं, बल्कि तात्कालिक जरूरतों और लाभ का सौदा बनता जा रहा है।कई युवतियां अपने खर्च और जीवनशैली की जरूरतें पूरी करने के लिए लड़कों का उपयोग करती हैं और फिर उन्हें धोखा देती हैं।कई घटनाएं दर्शाती हैं कि लड़कियों को जिम्मेदार और कर्मठ युवक नहीं, बल्कि दिखावटी और अस्थिर छपरी टाइप लड़कों पर अधिक भरोसा होता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, हर चार में से एक दहेज प्रताड़ना का मामला झूठा पाया गया, 498A के तहत दर्ज किए गए 83.7% मामलों में एफआईआर के बाद या तो चार्जशीट नहीं दाखिल हुई या आरोपी बरी हो गए, और हर साल औसतन 96,000 पुरुष आत्महत्या करते हैं, जिनमें से लगभग 34% वैवाहिक तनाव और घरेलू उत्पीड़न के कारण जीवन समाप्त कर देते हैं सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट कहा कि 498A का दुरुपयोग खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है और यह कानून अब सुरक्षा नहीं, हथियार बन चुका है।
दिल्ली महिला आयोग की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक 53.2% बलात्कार के मामले झूठे पाए गए, जिनमें से अधिकतर मामलों में अदालतें आरोपों को निरस्त कर देती हैं, लेकिन तब तक वह व्यक्ति मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से टूट चुका होता है।
इस सामाजिक और कानूनी असंतुलन का मूल कारण शिक्षा में नैतिकता की उपेक्षा, टूटते परिवारों का बढ़ना, सोशल मीडिया की भ्रमित कर देने वाली लोकप्रियता, और सबसे अहम, एकतरफा नीतियाँ हैं जो सिर्फ महिला सशक्तिकरण की बात करती हैं पर समानता के नाम पर पुरुषों को पूरी तरह उपेक्षित करती हैं, जबकि सच यह है कि अपराध का कोई लिंग नहीं होता क्राइम, क्राइम होता है, चाहे वह कोई भी करे।
अब समय आ गया है कि जिस तरह महिलाओं के लिए महिला आयोग, हेल्पलाइन, फास्ट ट्रैक कोर्ट और कानूनी संरक्षण हैं, उसी तरह पुरुषों के लिए भी एक राष्ट्रीय पुरुष संरक्षण आयोग की स्थापना की जाए, जो न केवल उन्हें कानूनी, मानसिक और सामाजिक सहायता दे, बल्कि झूठे मामलों की त्वरित जांच, आत्महत्या रोकथाम परामर्श, और परिवार न्यायालयों में निष्पक्षता की गारंटी भी सुनिश्चित करे।
यह किसी पुरुषवादी सोच की माँग नहीं, बल्कि संविधान के उस मूल सिद्धांत की माँग है जो समानता और न्याय की बात करता है; यदि महिला अधिकार जरूरी हैं, तो पुरुष अधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि समाज तब ही संतुलित रह सकता है जब दोनों पक्षों को समान सुरक्षा और सम्मान मिले।अब वक्त है कि संसद, न्यायपालिका और समाज एकजुट होकर इस दिशा में ठोस कदम उठाएं ताकि कल को कोई बेटा, पति, भाई या पिता यह न कहे कि मेरे साथ अन्याय हुआ, और कोई नहीं था जो मेरी सुनता।