जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir) के रामबन (Ramban) जिले के सेरी चंबा इलाके में शुक्रवार को घटित हुई प्राकृतिक आपदा न सिर्फ एक त्रासदी है, बल्कि यह हमारी तैयारियों, नीतिगत उदासीनता और प्राकृतिक चेतावनियों के प्रति हमारी लापरवाही का ज्वलंत उदाहरण भी है। बादल फटने की इस घटना ने ना सिर्फ जम्मू-श्रीनगर (Jammu-Srinagar) राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-44) को पूरी तरह ठप कर दिया, बल्कि सैकड़ों यात्रियों की जान को संकट में डाल दिया और क्षेत्र के निवासियों को भारी मानसिक और भौतिक नुकसान झेलने पर मजबूर कर दिया।
जन मानस त्रासदी को एक चेतावनी के रूप में देखता है और यह सवाल खड़ा करता है कि आखिर कब तक हम केवल आपदाओं के घटने के बाद ही सक्रिय होंगे? क्यों हम मौसम विज्ञानियों की समय पर की गई चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लेते? और कब तक हमारी व्यवस्थाएं केवल राहत और बचाव तक सीमित रहेंगी, जब कि आवश्यकता पूर्व-चेतावनी, नियोजन और सतत बुनियादी ढांचे के विकास की है?
रामबन (Ramban) के सेरी चंबा इलाके में बादल फटने के बाद उत्पन्न हुआ भूस्खलन कोई पहली घटना नहीं है। इस क्षेत्र में भूस्खलन का इतिहास पुराना है और इसके खतरे मौसम विभाग, भूवैज्ञानिक संस्थान और स्थानीय प्रशासन सभी को ज्ञात रहे हैं। इसके बावजूद अगर कोई प्रभावी पूर्व-चेतावनी प्रणाली सक्रिय नहीं थी, तो यह सीधे तौर पर हमारी नीति-निर्माण की विफलता को दर्शाता है। एनएच-44 देश के सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय राजमार्गों में से एक है, जो कश्मीर को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ता है। इसका बार-बार बाधित होना न सिर्फ यात्रियों के लिए खतरनाक है, बल्कि यह रणनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी गंभीर चिंता का विषय है।
प्रशासनिक स्तर पर सबसे बड़ी समस्या यही है कि आपदा प्रबंधन को अब भी एक “बाद की प्रक्रिया” के रूप में देखा जाता है। हमारी मशीनरी तब सक्रिय होती है जब नुकसान हो चुका होता है। चाहे वह अमरनाथ यात्रा में हुई आपदा हो या उत्तराखंड के केदारनाथ में आई त्रासदी, हम हर बार सिर्फ मलबा हटाने, राहत शिविर लगाने और मुआवज़ा देने तक ही सीमित रह जाते हैं।
बादल फटने के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर मलबा जमा हो गया और यातायात को दोनों ओर से रोकना पड़ा। सैकड़ों वाहन बीच रास्ते में फंस गए। यात्रियों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा, और स्थानीय प्रशासन को मशीनें भेजने में भी समय लगा। सीपीपीएल कंस्ट्रक्शन कंपनी की आधा दर्जन मशीनों के मलबा हटाने के प्रयास जरूर सराहनीय हैं, लेकिन सवाल यह है कि इन मशीनों को पहले से तैनात क्यों नहीं किया गया था?
राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों के पास पर्याप्त संसाधन हैं, फिर भी आपदा आने तक इंतजार क्यों? क्यों नहीं हाईवे जैसे संवेदनशील इलाकों में स्थायी आपदा प्रबंधन केंद्र स्थापित किए जाते, जहां 24×7 निगरानी और त्वरित प्रतिक्रिया के लिए बल मौजूद हों? क्या एनएचएआई जैसी महत्वपूर्ण संस्था को इस तरह की घटनाओं के लिए विशेष यूनिट नहीं बनानी चाहिए?
यह घटना एक और बड़ा संकेत है कि जलवायु परिवर्तन अब दरवाजे पर नहीं, बल्कि भीतर आ चुका है। अचानक भारी बारिश, बादल फटना और भूस्खलन जैसी घटनाएं अब नियमित हो गई हैं। हिमालयी क्षेत्रों में औसत वर्षा के पैटर्न में बदलाव और असामान्य मौसमी गतिविधियां यह स्पष्ट कर चुकी हैं कि पारंपरिक ढांचे और नीतियां अब अपर्याप्त हैं। अगर हम अब भी जलवायु अनुकूल ढांचागत विकास की ओर नहीं बढ़ते, तो ऐसी आपदाएं और अधिक घातक बनेंगी।
इस त्रासदी के दौरान जिस तरह से मीडिया ने तीव्रता से सूचना दी और यात्रियों को सचेत रहने की सलाह दी, वह प्रशंसनीय है। टीसीयू रामबन, ट्रैफिक पुलिस और अन्य अधिकारियों ने यात्रियों को सोशल मीडिया के माध्यम से हाईवे की स्थिति की जानकारी देने की कोशिश की। लेकिन क्या यह पर्याप्त था? सोशल मीडिया तक हर ग्रामीण या यात्रियों की पहुंच नहीं होती। स्थानीय भाषा में अलर्ट सिस्टम, रेडियो, एसएमएस आधारित सूचना तंत्र जैसे साधनों की व्यवस्था क्यों नहीं?
जनजागरूकता की भी कमी है। यात्रियों को यह जानकारी होनी चाहिए कि पहाड़ी क्षेत्रों में मौसम के क्या संकेत होते हैं, कैसे यात्रा करें और कहां रुकें। पर्यटन बढ़ा है, लेकिन उसके साथ सुरक्षा और शिक्षा का अनुपात बेहद कम है। यह शासन, प्रशासन और समाज तीनों की साझा जिम्मेदारी है कि जनहित में आपदा शिक्षा को प्रचारित करें।
हर आपदा के बाद राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं। लेकिन क्या यह समय इस बात का है कि कौन दोषी है? नहीं। यह समय इस बात का है कि हम भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति कैसे रोक सकते हैं। इसके लिए केवल बयानबाजी नहीं, बल्कि ठोस नीति, बजट आवंटन और समयबद्ध कार्ययोजना की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA), राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और एनएचएआई जैसे संस्थानों को मिलकर एक व्यापक रणनीति तैयार करनी चाहिए, जिसमें संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान, पूर्वानुमान प्रणाली की स्थापना, क्षेत्रीय आपदा केंद्रों की स्थापना और प्रशिक्षण शामिल हो। रामबन (Ramban) में घटित यह घटना कोई पहली या आखिरी नहीं है, लेकिन यह एक चेतावनी है – एक अवसर, जहां हम जागरूक हो सकते हैं, नीतियों में सुधार कर सकते हैं और भावी पीढ़ियों को सुरक्षित भविष्य दे सकते हैं।
हमें इस त्रासदी को केवल एक दुखद घटना मानकर भूलना नहीं चाहिए, बल्कि इसे एक सबक के रूप में देखना चाहिए। आपदाएं प्रकृति का हिस्सा हैं, लेकिन उनसे जूझने की हमारी तैयारी और संवेदनशीलता ही तय करती है कि यह एक आपदा बने या एक प्रबंधनीय चुनौती। समय आ गया है कि हम गंभीरता से यह सोचें कि प्राकृतिक आपदाओं को केवल नियति का दोष देने के बजाय, हम अपनी जिम्मेदारियों को कब समझेंगे और उन्हें निभाना कब शुरू करेंगे?
शरद कटियार
ग्रुप एडिटर
यूथ इंडिया न्यूज ग्रुप