यूथ इंडिया संवाददाता
फर्रुखाबाद: आज हम अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। इस ऐतिहासिक दिन पर हम उन लाखों वीरों को नमन करते हैं, जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर हमें आजादी दिलाई। आजादी की इस लड़ाई में ऐसे भी कई अनगिनत वीर थे जिन्होंने गुमनामी में रहते हुए देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
1857 की क्रांति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला संग्राम माना जाता है। इस ऐतिहासिक विद्रोह के दौरान फर्रुखाबाद न केवल क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना, बल्कि यहां की घटनाओं ने पूरे आंदोलन की दिशा को भी प्रभावित किया। यहाँ के क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ खुला विद्रोह किया। उन्होंने ब्रिटिश सेना के गोला-बारूद, हथियार और अन्य सैन्य सामग्री पर कई सफल हमले किए, जिससे अंग्रेजों की आपूर्ति व्यवस्था में गंभीर खलल पड़ा। इस प्रकार की कार्रवाइयों ने विद्रोह की ताकत को बढ़ाया और क्रांतिकारी सेना के मनोबल को ऊंचा किया।
बताया जाता है कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में फर्रुखाबाद क्षेत्र के 234 देशभक्तों को अपने देश को आजाद कराने की खातिर उम्र कैद व 161 लोगो को फांसी दी गई थी। उनकी स्मृति प्रतीक चिन्ह जैसे पीपल, इमली, नीम के पेड़ कई स्थानों पर आज भी देखने को मिलते है। यहां के लोगो ने कई लड़ाईया लड़ी जिसमें झन्नाखार की लड़ाई सबसे प्रमुख है, जिसमें हिन्दी मुस्लिम भाईयों ने मिलकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया था।
स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायक मोहसिन अली खां की शहादत
1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में कायमगंज के मोहसिन अली खां ने क्रांतिकारी आंदोलन को नई दिशा दी। वह न केवल इस ऐतिहासिक विद्रोह में भागीदार रहे, बल्कि विद्रोही सेना के प्रमुख नेता भी बने। उनके नेतृत्व में कई महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए, जिसमें बिशनगढ़, सिकंदरपुर, पटियाली और शमशाबाद शामिल हैं।
विशेष रूप से 27 जनवरी 1858 को शमशाबाद में झन्नाखार पर लड़ा गया युद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण था। इस संघर्ष में लगभग 300 क्रांतिकारी सैनिक शहीद हुए और अंग्रेजी सेना का लेफ्टिनेंट चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ मैकडॉवेल मारा गया तथा उसके कई साथी गंभीर रूप से घायल हुए। इस हार के बावजूद, क्रांतिकारियों का हौसला दुरुस्त रहा और विद्रोह की लहर और तेज हो गई।
मोहसिन अली खां और उनके साथियों ने ब्रिटिश सेना के गोला-बारूद और अन्य सैन्य सामग्री पर कई बार हमले किए, जो बरेली से एटा होकर फरूखाबाद आता था। लेकिन एक अन्य लड़ाई के दौरान मोहसिन अली खां को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया। उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया और जनवरी 1859 में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई।
मोहसिन अली खां को एक चारपाई पर हाथ-पैर बांधकर शिविर में लाया गया, जहां सिविल कमिश्नरों द्वारा परीक्षण के बाद उन्हें कोड़े मारे गए और फिर फांसी पर चढ़ा दिया गया। उनकी फांसी शहर के एक चौक में एक पेड़ पर दी गई, जिससे उनकी शहादत ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन को और भी प्रेरित किया।
मोहसिन अली खां की शहादत ने विद्रोही सेना को नई ऊर्जा दी और स्वतंत्रता संग्राम की आग को और भडक़ाया। उनके बलिदान को हमेशा याद किया जाएगा और उनके योगदान को सच्ची श्रद्धांजलि दी जाएगी।
कासगंज से लेकर कन्नौज तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी लड़ाइयाँ
कायमगंज के मोहल्ला जटवारा (पृथ्वी दरवाज़ा) निवासी खुशनवाज़ खां एडवोकेट ने मोहसिन अली खां की वीरता और शहादत पर महत्वपूर्ण जानकारी साझा की है। उन्होंने बताया कि, “मोहसिन अली खां ने 1857 और 1858 के दौरान कासगंज से लेकर कन्नौज तक अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाइयाँ लड़ीं। उन्हें फर्रुखाबाद के लिंजिगंज में एक पेड़ पर फांसी दी गई थी। उनकी कब्र हमीरपुर खास स्थित पुराना नकासा (पशु बाजार) से पूर्वोत्तर दिशा में ईदगाह के पास बने एक मकबरे में है।