– जब रोटी तेल से बनती है, मिट्टी से नहीं
– सीज़नल और अनपैकेज्ड खाना चुनें
लखनऊ: हमारे खाने की थाली (food plate) में सिर्फ़ स्वाद ही नहीं, बल्कि एक पूरी तेल-आधारित व्यवस्था छुपी हुई है। IPES-Food की ‘Fuel to Fork’ रिपोर्ट से पता चलता है कि खेती, ट्रांसपोर्ट, पैकिंग, यहाँ तक कि खाद्य प्रसंस्करण में भी पेट्रोल, डीज़ल और पेट्रोकेमिकल्स की निर्भरता खतरनाक हद तक बढ़ चुकी है। जब तेल महँगा होता है, तो सब्ज़ी- दाल भी हमारी पहुँच से बाहर हो जाती है। और जब युद्ध या भू-राजनीतिक संकट आते हैं, जैसे इज़राइल-ईरान या रूस-यूक्रेन तो उनकी भी मार हमारे खाने पर पड़ती है।
सवाल अब ये नहीं है कि खाना मिलेगा या नहीं ? सवाल ये है कि हम क्या खा रहे हैं? मिट्टी या तेल? मूल समस्या कहाँ है?
1. उद्योग आधारित खेती – यूरिया, DAP, ट्रैक्टर, कोल्ड स्टोरेज—सब कुछ तेल से चलता है।
2. पेट्रो-पैक्ड पैकेट्स – खाने की प्लास्टिक पैकिंग, ट्रांसपोर्ट, प्रोसेसिंग भी फॉसिल फ्यूल से जुड़ी है।
3. नकली समाधान – स्मार्ट फार्मिंग, डिजिटल खेती जैसे समाधान असल में एक और कार्पोरेट जाल हैं।
वास्तविक समाधान कहां हैं?
1. लोकलाइजेशन – गाँवों की मंडियाँ, देसी बीज, स्थानीय फसलें।
2. एग्रोइकोलॉजी – जैविक और पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ।
3. कम ऊर्जा पर आधारित सप्लाई चेन – ट्रैक्टर नहीं, बैलगाड़ी हो तो बेहतर नहीं तो E-ट्रांसपोर्ट।
4. नीति में बदलाव – COP30 जैसे मंचों पर खाद्य प्रणाली को केंद्र में लाना ज़रूरी है।
5. खाद्य-स्वराज्य की दिशा – जैसे ‘जल-स्वराज्य’ या ‘स्वराज्य’ की अवधारणा है, वैसे ही ‘खाद्य- स्वराज्य’।
सवाल यह है कि क्या हम खाना देख कर उसकी कहानी सोचते हैं? यही कि दाल कहाँ से आई? कौन बोया? किस ट्रक से आई? किस प्लास्टिक में पैक हुई? क्या हम सिर्फ़ ‘टेस्ट’ के भरोसे खा रहे हैं, या ‘ट्रेस’ कर पा रहे हैं? अब इन हालात में हम क्या कर सकते हैं जैसे कि हो सके तो हम अपने भोजन का कच्चा सामान देसी मंडी से खरीदें, लोकल किसानों से जुड़ें, सीज़नल और अनपैकेज्ड खाना चुनें। खेत से थाली तक की कहानी को दूसरों तक पहुँचाएं। COP30 जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खाद्य प्रणाली की बात उठाने वाले अभियानों का हिस्सा बनें।
देखा जाए तो हम जो खाते हैं, वही हम बनते हैं। और अगर हम तेल खा रहे हैं, तो शायद हम धीरे-धीरे इंसान से उपभोक्ता बनते जा रहे हैं।” खाने को तेल से आज़ाद करना कोई सपना नहीं यह हमारे गाँवों, मंडियों, बीजों और हमारी स्मृतियों में आज भी जिंदा है।


