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Sunday, June 1, 2025

देश में खाद्यान्न की बर्बादी की समस्या से निपटने की आवश्यकता

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विजय गर्ग

भारतीय संस्कृति में भोजन को देवता माना जाता है और इसे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। यही कारण है कि भोजन का अपमान करना, उसे फेंकना या बिना खाए छोड़ देना सभी धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से एक बड़ा पाप माना जाता है। लेकिन आज के समय में जब आधुनिकता की अंधी दौड़ हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत से दूर ले जा रही है, हम धीरे-धीरे इस महत्वपूर्ण अनुष्ठान को भूलते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि आज होटलों, रेस्तरां और शादियों जैसे आयोजनों में प्रतिदिन सैकड़ों टन भोजन बर्बाद हो रहा है।

यह केवल भारत का ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व का सत्य बन गया है। जबकि अरबों लोग भूख और कुपोषण से पीड़ित हैं, हर दिन लाखों टन भोजन बर्बाद हो जाता है। हर वर्ष विश्वभर में उत्पादित भोजन का एक तिहाई या लगभग 1.4 बिलियन टन भोजन बर्बाद हो जाता है। यह अपशिष्ट इतना अधिक है कि इससे लगभग दो अरब लोगों की खाद्य आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं। भारत में भी यह समस्या बहुत गंभीर है। विवाह तथा अन्य समारोहों में भोजन की बर्बादी का स्तर इतना अधिक होता है कि लगभग 40 प्रतिशत भोजन की बर्बादी विवाह स्थलों के पास कूड़े के ढेरों में पाई जाती है।

यह स्थिति न केवल आर्थिक दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी बहुत चिंताजनक है। भारतीय लोक प्रशासन संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार, वितरण प्रणाली में खामियों के कारण भारत में हर साल 230 मिलियन टन दालें, 120 मिलियन टन फल और 210 मिलियन टन सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। इसके अलावा, विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल 70,000 करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद हो जाता है, जो देश के कुल उत्पादन का 40 प्रतिशत है। भोजन की यह बर्बादी न केवल हमारी वित्तीय स्थिति को प्रभावित करती है, बल्कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर भी भारी दबाव डालती है।

हमारे देश में पानी की भारी कमी है, जबकि खाद्यान्न उत्पादन में हर साल 350 क्यूबिक मीटर पानी बर्बाद हो रहा है। हमारे देश में भूख और कुपोषण एक गंभीर समस्या है, विशेषकर उन लाखों परिवारों के लिए जिनकी आय अस्थायी श्रम पर निर्भर करती है। भारतीय समाज में बड़ी संख्या में लोग कूड़ा उठाकर या भीख मांगकर अपना जीवन यापन करते हैं। देश के 60 प्रतिशत से अधिक परिवारों की आय का मुख्य स्रोत अस्थाई मजदूरी है तथा गांवों में रहने वाले लगभग 40 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से कम है। ऐसे में चिंता की बात यह है कि एक तरफ जहां लाखों लोग भूख से जूझ रहे हैं।

दूसरी ओर, हमारे देश में खाद्यान्न की बड़े पैमाने पर बर्बादी होती है। भारत में हर साल बर्बाद होने वाले गेहूं की मात्रा ऑस्ट्रेलिया के कुल गेहूं उत्पादन के बराबर है। नष्ट हुए गेहूं का मूल्य लगभग 50,000 करोड़ रुपये आंका गया है, जिससे लगभग 30 करोड़ लोगों को पूरे वर्ष भोजन उपलब्ध कराया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, हमारा 50 मिलियन टन खाद्यान्न केवल इसलिए बर्बाद हो जाता है क्योंकि हमारे पास इसे संभालने के लिए पर्याप्त भंडारण सुविधाएं नहीं हैं। इससे हमारी भंडारण और आपूर्ति श्रृंखला की कमियों पर प्रकाश पड़ता है, जिसके कारण बड़ी मात्रा में खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। भारत में शादियों, समारोहों और त्यौहारों के दौरान भोजन की बर्बादी एक आम दृश्य बन गया है।

इन अवसरों पर बहुत सारा भोजन बर्बाद हो जाता है, जो हमारी संस्कृति के विरुद्ध है। हालाँकि, भारत सरकार इस विनाश को रोकने के लिए चिंतित है और इसके लिए कई योजनाएँ लागू कर रही है। लेकिन इस दिशा में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। विशेष रूप से बच्चों को यह सिखाया जाना चाहिए कि उन्हें केवल उतना ही भोजन परोसा जाए, जितनी उनकी भूख हो। एक-दूसरे के साथ भोजन बांटने की आदत भी भोजन की बर्बादी को रोकने में मदद कर सकती है। हमें अपनी परंपराओं और दर्शन की पुनः समीक्षा करने की आवश्यकता है ताकि हम भोजन और अनाज की बर्बादी को कम कर सकें।

हमें अपनी आदतें बदलने की जरूरत है और स्वयंसेवी संगठनों को भी इस दिशा में सक्रिय कदम उठाने चाहिए। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा चलाए जा रहे ‘सोचो, खाओ और बचाओ’ अभियान जैसी पहल भी एक सकारात्मक कदम है। यदि हम सभी इस अभियान में शामिल होकर सामाजिक जागरूकता फैलाएं तो भोजन की बर्बादी रोकी जा सकती है।

यह सिर्फ सरकार और संगठनों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हम सभी को अपने दैनिक जीवन में बदलाव लाने की जरूरत है। यदि हम भोजन को बचाने, उसे उचित तरीके से संग्रहीत करने तथा पर्याप्त मात्रा में भोजन तैयार करने की आदत अपना लें, तो हम अपने स्तर पर भोजन की बर्बादी को कम कर सकते हैं। यह वह समय है जब हमें अपने पारंपरिक दृष्टिकोण को पुनः अपनाकर भोजन की सराहना करने की आवश्यकता है। तभी हम इस गंभीर समस्या का समाधान ढूंढ पाएंगे और समाज को सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ा पाएंगे।

(विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब)

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