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Wednesday, March 12, 2025

दिल्ली का 75 वर्ष का राजनीतिक इतिहास बहुत दिलचस्प है

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अशोक भाटिया , मुंबई

दिल्ली विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Elections) के नतीजे आ चुके हैं और राजधानी को अपना अगला मुख्यमंत्री मिलने वाला है। इसी कड़ी में हम आपको दिल्ली के चुनावी इतिहास से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ दे रहे हैं, जो शायद आपकी नजरों से अब तक दूर रही हों। दिल्ली दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दिल है। यहाँ के चुनाव देश के अन्य राज्यों से कई मायनों में अलग होते हैं। सत्ता की खींचतान और जनता की आवाज के बीच दिल्ली का चुनावी सफर हमेशा दिलचस्प रहा है। 1952 में पहली विधानसभा बनने से लेकर अब तक, दिल्ली की राजनीति में कई बड़े बदलाव हुए हैं। खासकर 1956 से 1993 तक, जब दिल्ली की विधानसभा भंग कर इसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी के बाद दोबारा भाजपा ने अपना वर्चस्व स्थापित किया है। आइए, जानते हैं दिल्ली के चुनावी इतिहास की झलक।

1950 में जब संविधान लागू हुआ तो दिल्ली को भाग ग के राज्य में केंद्र शासित प्रदेश के रूप में शामिल किया गया। जहां 48 सदस्यों वाले एक विधानसभा के गठन के लिए संसद में स्टेट एक्ट 1951 पास किया गया। इस एक्ट के तहत देश की संसद के साथ-साथ दिल्ली विधानसभा के लिए भी 1951-52 में 42 सीटों के लिए चुनाव हुए। कांग्रेस ने 39 सीटें हासिल की जबकि जनसंघ जो भाजपा की पूर्व पार्टी है को 5 सीटें मिली, 2 सीटें सोशलिस्ट पार्टी को मिली। 17 मार्च 1952 को कांग्रेस ने 34 साल के ब्रह्म प्रकाश को मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन शुरुआत से ही दिल्ली के मुख्यमंत्री को ऑर्डर, जमीन और पुलिस पर कोई अधिकार नहीं दिया गया। दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री के समय से चीफ कमिश्नर और अब उपराज्यपाल से जो टकराव है वह आजतक चलता आ रहा है। कई तरह के राजनीतिक टकराव के बाद 12 फरवरी 1955 को ब्रह्म प्रकाश को इस्तीफा देना पड़ा। उनकी जगह पर दरियागंज से विधायक गुरुमुख निहाल सिंह उसी दिन मुख्यमंत्री बने। लेकिन वे भी अपना टर्म पूरा नहीं कर सके और 1 साल 263 दिनों के बाद 1 नवंबर को 1956 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

मुख्यमंत्री और चीफ कमिश्नर के बीच टकराव के मद्देनजर फजल अली के नेतृत्व में राज्य पुनर्गठन आयोग बना जिसने राज्य सरकार की जगह स्थानीय प्रशासन का सुझाव दिया है। इस तरह 1 नवंबर 1956 को दिल्ली को भाग ग के तहत राज्य का दर्जा देने वाली संवैधानिक व्यवस्था को सीज कर दिया गया और दिल्ली में विधानसभा और मुख्यमंत्री के पद को समाप्त कर दिया गया। अब दिल्ली पूरी तरह से राष्ट्रपति के अधीन केंद्र शासित प्रदेश बन गई। जब दिल्ली की जनता में इस फैसले के खिलाफ रोष व्यक्त किया जाने लगा तो एक अन्य कमिटी के सुझाव पर दिल्ली म्युनिसपल कॉरपोरेशन एक्ट 1957 लागू किया गया जिसके तहत दिल्ली में नए सिरे से नगर निगम यानी एमसीडी की स्थापना की गई। हालांकि इससे जनता संतुष्ट नहीं हुई। जनता उसी समय से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग करने लगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए सहकारिया प्रशासनिक सुधार आयोग के सुझाव पर 1966 में दिल्ली प्रशासनिक एक्ट 1966 लागू किया गया लेकिन इसमें दिल्ली विधान सभा की जगह लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन एक मेट्रोपॉलिटन काउंसिल का गठन किया गया। इसके पास सिर्फ उपराज्यपाल को सुझाव देने का अधिकार था। उपराज्यपाल के माध्यम से दिल्ली पर तभी से सीधे केंद्र सरकार का कब्जा रहा है।

इस मेट्रोपॉलिटन काउंसिल में 56 सदस्य होते थे जबकि 5 राष्ट्रपति द्वारा सीधे मनोनीत होते थे। मेट्रोपॉलिटन काउंसिल के प्रमुख चीफ एग्जक्यूटिव काउंसिलर होते थे। 1966 से 1967 तक संसद की अनुमति से मीर मुश्ताक अहमद को इसका अंतरिम प्रमुख बनाया गया। 1967 में इसके लिए पहला चुनाव हुआ। इस चुनाव में 33 सीटें जनसंघ को मिली जिसके बाद प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा चीफ एग्जक्यूटिव काउंसिलर बने जबकि लाल कृष्ण आडवाणी काउंसिल के चेयरमैन बने। हालांकि 1972 में हुए मेट्रोपॉलिटन काउंसिल के चुनाव में कांग्रेस ने 44 सीटें जीती और राधा रमण को सीईसी बनाया गया। 1977 में जनता पार्टी ने 46 सीटें जीतकर केदार नाथ साहनी को सीईसी बनाया। 1983 में मेट्रोपॉलिटन के आखिरी चुनाव में कांग्रेस ने 34 सीटें जीती और जग प्रवेश चंद्र को सीईसी बनाया। 1990 तक वे ही इस पद पर रहे।

संविधान के अनुच्छेद 239 एएए और 1991 कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट के तहत विधानसभा में 70 सीटों की व्यवस्था की गई और इसी आधार पर दिल्ली में 1993 में पहला चुनाव हुआ। इस चुनाव में भाजपा ने मदन लाल खुराना, ओपी कोहली और दिग्गज विजय कुमार मल्होत्रा को चुनाव जीताने की जिम्मेदारी दी। 1984 में सिख दंगों की छाया में कांग्रेस पहले से ही इस चुनाव में पिछड़ी हुई थी। भाजपा ने प्रचंड बहुमत हासिल कर 49 सीटों पर कब्जा किया। 2 दिसंबर 1993 को मदन लाल खुराना को नए विधानसभा के गठन के बाद पहली बार मुख्यमंत्री बनाया गया।
मदन लाल खुराना ने मुख्यमंत्री का पद तो हासिल कर लिया लेकिन पार्टी में कई अन्य दिग्गज भी इस पद के लिए अपनी आस लगाए बैठे थे। नतीजा आपसी खींचतान बढ़ गई। फिर 1995 में हवाला केस ने देश के कई दिग्गजों को संकट में डाल दिया जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी समेत कई दिग्गज नेताओं के नाम थे। मदन लाल खुराना का भी इसमें नाम था। इस तरह मदन लाल खुराना को इस्तीफा देना पड़ा। 2 दिसंबर 1993 को साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के मुख्यमंत्री बने पर साहिब सिंह वर्मा भी पार्टी को सही तरीके से साध नहीं सके। केंद्र में भाजपा सरकार रहते हुए भी दिल्ली की जनता का वे भरोसा नहीं जीत सके। आपसी खींचतान और ज्यादा बढ़ गई। चुनाव में संभावित हार को देखते हुए भाजपा ने चुनाव से कुछ दिन पहले तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज को 12 अक्टूबर 1998 को दिल्ली का पहला महिला मुख्यमंत्री बनाया।चुनाव में सुषमा ने अपना तेवर तो दिखाए लेकिन मंहगाई ने चुनाव में भाजपा को बूरी तरह से पछाड़ दिया। कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और ऐसी नींव तैयार कर ली जो आगे 15 सालों तक कायम रहा।
1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने 52 सीटों पर कब्जा किया जबकि 1993 में 49 सीटें जीतने वाली भाजपा 15 सीटों पर सिमट गई। 3 दिसंबर 1998 को शीला दीक्षित दिल्ली की दूसरी मुख्यमंत्री बनीं और आगे 15 साल 25 दिनों तक 28 दिसंबर 2008 तक इस पद पर बनी रहीं। इस 15 सालों में दिल्ली में फ्लाई ओवरों का जाल बिछ गया। पहली बार मेट्रो आई। सड़कों की व्यवस्था सुधरी, दमघोंटू डीजल गाड़ी की जगह सीएनजी गाड़ियों को लाया गया। इन कामों का श्रेय आज भी शीला दीक्षित को जाता है। 2003 के चुनाव में कांग्रेस शीला दीक्षित को फिर एक बार आगे किया। उनके खिलाफ बुजुर्ग विजय कुमार मल्होत्रा को भाजपा ने उतारा जबकि पार्टी का एक धरा युवा अरुण जेटली या हर्षवर्धन को उतारने के पक्ष में थे। नतीजा कांग्रेस ने फिर बाजी मारी और 47 सीटों पर कब्जा किया जबकि भाजपा थोड़ा आगे बढ़कर 20 सीटें हासिल की। शीला दीक्षित दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी। 2008 के चुनाव में भी शीला दीक्षित के नेतृत्व में ही कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और 43 सीटें हासिल की जबकि भाजपा 23 सीटों पर सिमट गई। अब देश की राजनीति में आमूल चूल परिवर्तन आ चुकी थी। 2012 में अन्ना आंदोलन की कोख से एक नए राजनीतिक दल के उदय ने 2013 के चुनाव में शीली दीक्षित को बुरी तरह हरा दिया और 15 साल की सत्ता का अंत हो गया।

केंद्र में कांग्रेस सरकार की बुरी तरह की असफलताओं ने कई आंदोलनों को जन्म दिया जिसमें अन्ना हजारे के नेतृत्व में राजधानी में सबसे बड़े आंदोलन ने आम आदमी पार्टी को जन्म दिया। कांग्रेस के खिलाफ जबर्दस्त लहर के बीच अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 2013 के दिल्ली चुनाव में 28 सीटें हासिल कीं। 32 सीटें हासिल कर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी तो बनी लेकिन कांग्रेस की 8 सीटों की मदद से अरविंद केजरीवाल ने सरकार बना लिया। मगर 49 दिनों तक मुख्यमंत्री के पद पर रहने के बाद कांग्रेस पर कई आरोप लगाकर सरकार से इस्तीफा दे दिया। वे 14 फरवरी 2014 तक इस पद पर रहे। उन्होंने देश की राजनीति शुरू की। लेकिन इस समय तक देश में नरेंद्र मोदी ने अपने कद का विस्तार कर लिया था। मई 2014 में लोकसभा चुनाव हुए। अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने भी इस चुनाव में किस्मत आजमाया। अरविंद केजरीवाल खुद नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से उतर गए। हालांकि उन्हें रत्ती भर भी सफलता नहीं मिली। 14 फरवरी 2014 से 13 फरवीर 2015 तक दिल्ली में विधानसभा भंग रही। 2015 में दिल्ली में चुनाव हुए तो केजरीवाल ने प्रचंड बहुमत हासिल किया। 70 सीटों में 67 सीटों पर कब्जा कर लिया। यह दिल्ली के इतिहास की सबसे बड़ी जीत थी। सिर्फ 3 सीटें ही भाजपा जीत सकी। कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला। बड़े सपने के साथ अरविंद केजरीवाल 14 फरवरी 2015 को दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। 2020 के चुनाव में केजरीवाल दोबारा 62 सीटों पर कब्जा जमाया और 16 फरवरी 2020 को तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

अरविंद केजरीवाल 9 साल 218 दिनों तक लगातार दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। लेकिन शराब घोटालों से घिरी उनकी पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं के जेल जाने से पार्टी की छवि बुरी तरह प्रभावित हुई। उनके सभी बड़े नेता जेल की हवा खा चुके हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी अंततः जेल जाना पड़ा। 21 मार्च 2024 को उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। 13 सितंबर 2014 को पांच महीने के बाद केजरीवाल बेल पर रिहा हुए और 21 सितंबर को उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद से दिल्ली में आतिशी मुख्यमंत्री का पद संभाल रही थी जिसे अब भाजपा ने एड़ी छोटी का जोर लगा कर झटक लिया हैं । झटका भी ऐसा कि अरविन्द केजरीवाल सहित आप के कई बड़े नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा ।

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