प्रशांत कटियार✍️
हमारे पुराने समय में, जब हम कक्षा 1 से लेकर इंटर तक की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, तब एक ही सिलेबस और किताबें पूरे परिवार के काम

आती थीं। हमारी बड़ी किताबों से हमारे छोटे भाई, रिश्तेदारों, और गांव के बच्चों ने भी पढ़ाई की। यह स्थिति बताती थी कि शिक्षा सस्ती थी, किताबें सस्ती थीं और बच्चों को शिक्षा प्राप्त करना एक सहज और सामान्य प्रक्रिया थी। उस समय शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्रदान करना था, न कि एक बड़ा मुनाफा कमाने का साधन बनाना।
लेकिन आज की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। अब स्कूलों में अपनी विशेष किताबों और सिलेबस का पालन किया जा रहा है। इन किताबों से स्कूलों को कमीशन मिलता है और यही स्थिति शिक्षा के बाजारीकरण का स्पष्ट उदाहरण है। अब किताबों का पैटर्न हर साल बदलता है, जिससे अभिभावकों को बार बार नई किताबें खरीदनी पड़ती हैं। नर्सरी से लेकर एलकेजी-यूकेजी तक के सिलेबस का खर्च तीन से चार हजार रुपये तक पहुंच चुका है, और इसके अलावा एडमिशन फीस, मंथली फीस, बिल्डिंग फीस और अन्य शुल्क भी जोड़े जाते हैं।
यहां तक कि प्राइवेट स्कूल अब शिक्षा को एक व्यापार के रूप में संचालित कर रहे हैं। शिक्षा का उद्देश्य अब केवल बच्चों को अच्छी शिक्षा देना नहीं रहा, बल्कि स्कूल संचालकों का मुख्य ध्यान हर साल फीस बढ़ाने और कमाई के अन्य रास्ते तलाशने में है। ड्रेस, किताबें, स्कूल बैग, और अन्य उपकरणों के नाम पर अभिभावकों से भारी राशि वसूल की जाती है। इससे साफ है कि शिक्षा का उद्देश्य अब समाज की भलाई नहीं, बल्कि मुनाफा कमाना बन चुका है।इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी तंत्र और नीति निर्माता इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं। दरअसल, सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चे भी बड़े प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं, जिससे उन्हें प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर कोई चिंता नहीं होती। स्कूल संचालकों की इस बेलगाम लूट का सबसे बड़ा शिकार आम अभिभावक हो रहे हैं, जो बच्चों के भविष्य को लेकर मजबूर हैं और विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते। अगर कोई अभिभावक स्कूलों की फीस या अन्य शुल्कों के खिलाफ आवाज उठाता है, तो उसे डर होता है कि उसके बच्चे का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।इसका परिणाम यह है कि अब हर नया सेशन शुरू होते ही स्कूलों में फीस बढ़ोतरी, ड्रेस और किताबों की कीमतों में इजाफा, और अन्य शुल्कों का बाजार पूरी तरह चरम पर होता है। यही नहीं, बिल्डिंग फीस, स्कूल बैग, बच्चों की ड्रेस और अन्य खर्चों के नाम पर अभिभावकों से जमकर उगाही की जाती है। अगर जिलाधिकारी या शिक्षा विभाग के अधिकारी इस पर सख्त कार्रवाई करें और प्राइवेट स्कूलों की जांच करें, तो शिक्षा का बाजारीकरण और स्कूल संचालकों की मनमानी सामने आ सकती है।यह स्थिति न केवल अभिभावकों के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए चिंता का विषय बन चुकी है। अगर इस पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो शिक्षा केवल उन्हीं बच्चों के लिए सुलभ होगी जिनके पास पैसा होगा, और गरीब बच्चों के लिए शिक्षा का सपना केवल सपना ही रह जाएगा। शिक्षा का बाजारीकरण केवल समाज में असमानता को बढ़ावा देगा, जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए खतरनाक है।इसलिए, यह अत्यंत आवश्यक है कि सरकार और प्रशासन इस पर ध्यान दे और एक ठोस रूपरेखा तैयार करे। प्राइवेट स्कूलों के द्वारा मनमानी फीस, किताबों और अन्य खर्चों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर कदम उठाने चाहिए। यही नहीं, शिक्षा विभाग को भी इस दिशा में कार्यवाही करनी चाहिए ताकि शिक्षा का उद्देश्य केवल व्यवसाय न बनकर हर बच्चे को समान अवसर प्रदान करना बन सके।