अशोक भाटिया
उपचुनाव की हार से मायूस अपने काडर को अगले मिशन के लिए तैयार करने को समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) ने नया एक्शन प्लान बनाया है। 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अभी से कार्यकर्ताओं व टिकट की चाह रखने वालों को पूरी तरह सक्रिय करने की तैयारी शुरू कर दी है और इसी के साथ सपा ने विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए दावेदारों को संदेश दे दिया है कि वह खुद सक्रिय होकर कार्यकर्ताओं को भी पार्टी का संदेश देने के काम में लगा दें।केवल प्रचार होर्डिंग लगाने से काम नहीं चलेगा। उपचुनाव में नौ सीटों में सात पर हार मिलने के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने अपने लोगों के बीच कहा कि अब विधानसभा चुनाव की लड़ाई काफी कठिन है। भाजपा की रणनीति से मुकाबले के लिए माइक्रो लेवल पर काम करना होगा और सतर्कता बरतते हुए विरोधियों की चालों को काटना होगा। असल में अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में पीडीए (पिछड़ा दलित व अल्पसंख्यक) फार्मूले का कामयाबी से इस्तेमाल किया। चाहे वह टिकट वितरण हो या इसके जरिए पीडीए वोटरों की अपने पक्ष में कामयाबी लामबंदी करना रहा हो। इस समीकरण ने सपा को ऐसी सियासी उछाल दी कि वह लोकसभा में 37 सीटें तक पहुंच गईं। पर बाद में हुए उपचुनाव में हालात ऐसे बने कि सपा को केवल दो सीटों पर संतोष करना पड़ा।
अगले 2027 के चुनाव में कोई कोर कसर न रहा जाए इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव में अस्सी फीसदी से ज्यादा भाजपा के पक्ष में वोटिंग करने वाले ब्राह्मण समाज पर भी सपा की नजर है। कांग्रेस ने ब्राह्मण समाज से अविनाश पांडेय को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बना रखा है तो भूमिहार समुदाय से आने वाले अजय राय को प्रदेश अध्यक्ष पद की कमान सौंप रखी है। मनोज पांडेय, राकेश पांडेय और विनोद चतुर्वेदी जैसे ब्राह्मण समुदाय के विधायकों के बागी रुख अपनाने के बाद अखिलेश यादव ने ब्राह्मण विरोधी नैरेटिव को तोड़ने के लिए माता प्रसाद पांडेय को नेता प्रतिपक्ष का पद सौंप दिया है। ऐसे में सपा की नजर ब्राह्मण को भी साधकर 2027 की सत्ता में वापसी करने का प्लान है ।
वैसे 2024 के लोकसभा चुनावों से अखिलेश यादव को समझ में आ गया है कि अगर वो ब्राह्मण को वरीयता देते हैं तो सफलता की दर बढ़ सकती है। विशेषकर पूर्वी उत्तरप्रदेश में ब्राह्मणों को एक साथ लाने में पार्टी को सफलता मिल सकती है। हाल ही में उत्तर प्रदेश विधानसभा में माता प्रसाद पांडेय को जब से नेता प्रतिपक्ष बनाया गया तबसे सपा प्रमुख अखिलेश यादव की दोबारा ब्राह्मण समुदाय को साधने की कोशिश के तौर पर ही देखा जा रहा है। यह बात इसलिए कही जा रही है कि सपा ने अपने सियासी इतिहास में पहली बार किसी अगड़े समुदाय को सदन में नेता प्रतिपक्ष बनाया है। इस तरह सपा अपने सियासी आधार को पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) तक ही सीमित नहीं रखना चाहती बल्कि उसे विस्तार देने के लिए ब्राह्मण नेता पर दांव लगाना ज्यादा मुफीद लगा। इसके चलते माता प्रसाद पांडेय को विधानसभा में सपा विधायकों की नुमाइंदगी सौंपी है।
माता प्रसाद पांडेय को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के समर्थन-विरोध में भले ही सपा के भीतर और बाहर आवाज उठ रही हो और बीजेपी-बसपा ने सवाल खड़े किए हैं, लेकिन अखिलेश के इस फैसले के बाद यह चर्चा भी चल पड़ी है कि क्या ब्राह्मणों की गोलबंदी के लिए सियासी कसरत तेज होगी और क्या ब्राह्मण वोटर भाजपा का साथ छोड़कर सपा के साथ जाना पसंद करेंगे। भाजपा के पूर्व विधायक आनंद शुक्ला ने ट्वीट कर माता प्रसाद पांडेय को बधाई देते हुए लिखा कि 15 फीसदी ब्राह्मण वोटों की जरूरत सबको है। वहीं, बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिक्रिया के बाद पार्टी के ब्राह्मण चेहरे माने जाने वाले सतीश चंद्र मिश्रा ने सपा सरकार में अगड़ों-पिछड़ों की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए ब्राह्मण समुदाय पर हुए अत्याचार याद दिलाया।गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की सियासत में कभी ब्राह्मण किंग हुआ करते थे, लेकिन अब किंगमेकर बनकर रह गए हैं। उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सियासत और सत्ता दोनों ही ब्राह्मण समुदाय के इर्द-गिर्द सिमटी रही। आजादी के बाद उत्तरप्रदेश में 1989 तक ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम रहा और छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने। गोविंद वल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्र और नारायण दत्त तिवारी उत्तरप्रदेश में सीएम रहे। ये सभी कांग्रेस से थे। इनमें नारायण दत्त तिवारी तीन बार उत्तरप्रदेश के सीएम रहे।
ब्राह्मण समुदाय के मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल को देखें तो करीब 23 साल तक उत्तर प्रदेश की सत्ता की कमान ब्राह्मण समुदाय के हाथ में रही है। लेकिन, मंडल और कमंडल की राजनीति ने उन्हें हाशिए पर धकेल किया। नारायण दत्त तिवारी के बाद उत्तर प्रदेश में कोई भी ब्राह्मण समुदाय से मुख्यमंत्री नहीं बन सका। सूबे में पिछले साढ़े तीन दशक से राजनीतिक दलों के लिए ब्राह्मण समुदाय सिर्फ वोटबैंक बनकर रह गए हैं। उत्तरप्रदेश में भले ही 1989 के बाद कोई ब्राह्मण किंग न बन सका हो, लेकिन किंगमेकर की भूमिका जरूर अदा कर रहे हैं।
उत्तरप्रदेश में ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम समीकरण के जरिए कांग्रेस का दबदबा बना रहा और ब्राह्मण सीएम भी उसी दौर में बनते रहे। मंडल बनाम कमंडल की राजनीति ने कांग्रेस और ब्राह्मण दोनों को सत्ता से बाहर कर दिया। नब्बे के दशक से ब्राह्मणों ने भाजपा को पकड़ा तो उसके सियासी खूंटे से कमोबेश वैसे ही बंधे जैसे यादव सपा और दलित बसपा के साथ। बसपा और सपा के मजबूत होने और भाजपा के कमजोर होने के चलते ब्राह्मणों की सियासत हाशिए पर पहुंच गई। ऐसे में मायावती ने 2007 में ब्राह्मणों को साधकर सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत की। बसपा ने नारा दिया था कि ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा।’
भाजपा के उदय के साथ ही ब्राह्मण समुदाय का कांग्रेस से मोहभंग हुआ। उत्तरप्रदेश में जिस भी पार्टी ने पिछले तीन दशक में ब्राह्मण कार्ड खेला, उसे सियासी तौर पर बड़ा फायदा हुआ है। सीएसडीएस के आंकड़ों की मानें तो साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को 72 फीसदी ब्राह्मणों ने वोट दिया जबकि सपा-बसपा को 5-5 फीसदी ब्राह्मण वोट मिले। कांग्रेस को लगभग 11 फीसदी ब्राह्मणों ने वोट दिया। 2019 चुनाव में भाजपा को 82 फीसदी ब्राह्मणों ने वोट किया लेकिन लेकिन सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस को 6-6 फीसदी ब्राह्मण वोट मिले। 2024 चुनाव में भी ब्राह्मण समुदाय का 82 फीसदी वोट भाजपा को मिला है।
उत्तरप्रदेश में सबसे ज्यादा ब्राह्मण विधायक 1980 के चुनाव में जीते थे। उस समय ब्राह्मण समुदाय के 87 विधायक थे, लेकिन उसके बाद से लगातार विधानसभा में उनकी संख्या घटती जा रही है। 2002 में 41 ब्राह्मण विधायक ने, लेकिन 2007 में 56 विधायक बनने में कामयाब रहे। 2007 में जब मायावती सत्ता में आईं तो उस समय बीएसपी से 41 ब्राह्मण विधायक चुने गए। 1993 में बसपा से महज एक ब्राह्मण विधायक था, लेकिन चुनाव दर चुनाव यह आंकड़ा बढ़ता गया। 2007 के उत्तरप्रदेश चुनाव में सीएसडीएस की रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 38 फीसदी ब्राह्मणों ने ही मायावती को वोट दिया था और इसमें से भी अधिकतर वोट बसपा को वहां मिले थे जहां उसने ब्राह्मण उम्मीदवार खड़े किए थे।
2012 में 47 ब्राह्मण समाज से विधायक बने थे जबकि 2017 में 58 विधायक ब्राह्मण समुदाय से चुने गए थे, जिनमें 46 विधायक भाजपा से बने थे। इससे पहले भाजपा से जीते ब्राह्मणों की संख्या 20 से ज्यादा नहीं बढ़ी थी। 2002 से लेकर 2012 तक तो भाजपा से जीतने वाले ब्राह्मणों की संख्या दहाई का अंक भी नहीं छू पाई थी। वहीं, सपा से सबसे ज्यादा 21 ब्राह्मण 2012 के चुनाव में जीतकर आए थे जबकि इससे पहले यह आंकड़ा 11 तक ही सिमटा रहा है। 2022 के विधानसभा चुनाव में 52 विधायक ब्राह्मण समाज से चुने गए हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 46 भाजपा से हैं जबकि पांच सपा और एक ने कांग्रेस से जीत दर्ज की है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा का 2017 में दोबारा से उभार हुआ तो ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें सत्ता की कमान मिलेगी, लेकिन सीएम योगी आदित्यनाथ को बना दिया, जो ठाकुर समुदाय से हैं और ब्राह्मण समुदाय के दिनेश शर्मा को डिप्टी सीएम से संतोष करना पड़ा। इसके बाद 2022 के चुनाव में भाजपा दोबारा सत्ता में आई तो सत्ता की बागडोर सीएम योगी के हाथों में रही जबकि डिप्टी सीएम का पद बृजेश पाठक को दे दिया गया। ऐसे में विपक्ष ठाकुर बनाम ब्राह्मण का नैरेटिव बनाने की कवायद में है।
देखा जाय तो उत्तर प्रदेश में अब तक भाजपा के जितने भी सीएम बने उनमें एक भी ब्राह्मण नहीं रहा। अभी तो ये हाल है कि उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री और उत्तरप्रदेश भाजपा अध्यक्ष दोनों ही ब्राह्मण नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण बनाम राजपूत के बीच इतनी प्रतिस्पर्धा रही है कि कांग्रेस राज में हमेशा इन दोनों में से एक सरकार का मुखिया रहता तो दूसरा संगठन का मुखिया रहा करता था। पर भाजपा ने इसे भुला दिया। भाजपा की ओर से केंद्र में भी कोई कद्दावर मंत्री इस समुदाय का नहीं बना है।
ब्राह्मणों का यह भी आरोप रहा है कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने ब्राह्मण माफियाओं पर तो कार्रवाई की पर ठाकुर माफिया छुट्टा घूमते रहे। यह भी आरोप लगते रहे कि प्रदेश के खास पदों पर ठाकुरों की नियुक्ति की गई। इन सब आरोपों का ही नतीजा रहा कि 2024 के लोकसभा चुनावों में ब्राह्मणों का वोट बंटा है। समाजवादी पार्टी के टिकट पर चिल्लूपार (गोरखपुर) से विधायक रह चुके विनय शंकर तिवारी का कहना है कि आगामी विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण बड़ी संख्या में समाजवादी पार्टी के साथ आएंगे। तिवारी कहते हैं कि ब्राह्मण भाजपा राज में उपेक्षित तो हुए ही हैं इसके साथ ही प्रदेश सरकार का कुशासन भी उनको मजबूर कर रहा है कि अब भाजपा को वोट नहीं देना है।