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Monday, August 18, 2025

विडंबना: कूड़े के ढेर में अपना भविष्य तलाशता बचपन

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फर्रुखाबाद। एक ओर भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है, वहीं दूसरी ओर समाज का एक भयावह सच आज भी आंखों में चुभता है—बाल श्रम। तमाम सरकारी योजनाओं, जागरूकता अभियानों और कानूनों के बावजूद नगर के कोनों, सड़कों, स्टेशन और चौराहों पर कंधे पर पॉलिथीन लटकाए कूड़ा बीनते नन्हें हाथ अब भी देखे जा सकते हैं। यह दृश्य देश की तरक्की की असली तस्वीर बयां करता है।

सरकारें बच्चों को स्कूल तक पहुँचाने के लिए तमाम प्रयास कर रही हैं—मिड-डे मील योजना से लेकर मुफ्त यूनिफॉर्म और किताबों तक—but जमीनी हकीकत अभी भी कटु है। समस्या केवल सरकारी प्रयासों की विफलता नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता की भी है। जब तक आम नागरिक अपने बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता नहीं देंगे, तब तक बाल श्रम जैसी सामाजिक कुरीति खत्म नहीं की जा सकती।

नगर में आए दिन छोटे-छोटे बच्चे कूड़ा बीनते हुए दिख जाते हैं। कुछ तो अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि हालात से मजबूर होकर यह काम कर रहे हैं। लोअर क्लास और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों में अक्सर यह देखा जाता है कि अभिभावक या तो नशे, जुए या अन्य सामाजिक बुराइयों में लिप्त रहते हैं और बच्चों को कमाने के लिए सड़क पर धकेल देते हैं। वहीं कई मामलों में यह मजबूरी बन जाती है क्योंकि घर की आमदनी इतनी कम होती है कि बच्चे भी परिवार के भरण-पोषण में हाथ बंटाते हैं।

ऐसे बच्चे पढ़ाई की जगह अपने बचपन को प्लास्टिक की बोरी में समेटते हैं। उनके चेहरे पर मुस्कान की जगह थकान और लाचारी का साया होता है। रेलवे स्टेशन, बस अड्डा, मुख्य चौराहे या नगर के कूड़ा घरों में ये मासूम सुबह से शाम तक भटकते रहते हैं, मानो उनके जीवन की दिशा ही कूड़े के ढेर से तय हो रही हो।

प्रश्न यह है कि आखिर यह विडंबना कब खत्म होगी? कब ये बच्चे स्कूल की बेंच पर बैठकर किताबों में अपने सपने तलाशेंगे? सिर्फ प्रशासन नहीं, बल्कि पूरे समाज को मिलकर यह संकल्प लेना होगा कि कोई भी बच्चा मजदूर नहीं बनेगा। शिक्षा का अधिकार केवल कानून की किताबों में नहीं, ज़मीनी हकीकत में भी उतरना चाहिए।

आज आवश्यकता है कि समाज के हर वर्ग को जागरूक किया जाए, माता-पिता को समझाया जाए कि बाल श्रम बच्चों का नहीं, समाज का भविष्य नष्ट करता है। समाजसेवी संगठनों और स्थानीय प्रशासन को संयुक्त रूप से अभियान चलाकर ऐसे बच्चों को स्कूल भेजने का प्रयास करना चाहिए।

भारत तब ही सशक्त बनेगा जब उसका बचपन शिक्षित और सुरक्षित होगा, वरना कूड़े के ढेर से निकली यह करुण पुकार हमें बार-बार हमारी असलियत का आईना दिखाती रहेगी।

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