शरद कटियार
भारत की सांस्कृतिक धरोहर का सबसे बड़ा आधार उसकी भाषाई विविधता है। इस विविधता के बीच हिंदी मात्र संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी आत्मा और पहचान का प्रतीक है। यह भाषा उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक फैले भारत को एक सूत्र में पिरोने वाली धारा है। इसी महत्व को रेखांकित करने के लिए हर वर्ष 14 सितंबर को हम हिंदी दिवस मनाते हैं। यह दिन न केवल भाषा का उत्सव है, बल्कि यह अवसर हमें अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटने और नई पीढ़ियों को हिंदी की अहमियत समझाने का भी है।
दुर्भाग्य यह है कि आधुनिक दौर में हिंदी की जगह अंग्रेजी को श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। शिक्षा, रोजगार और सामाजिक प्रतिष्ठा के क्षेत्र में अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है। यहां तक कि न्यायालयों में फैसले और बहस भी प्रायः अंग्रेजी में ही होते हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हम अपनी मातृभाषा को आधुनिकता की दौड़ में पीछे छोड़ देंगे? यदि ऐसा हुआ तो यह केवल एक भाषा का ह्रास नहीं होगा, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान और विरासत के लिए गंभीर खतरा होगा।
हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों को अक्सर अंग्रेजी माध्यम से पढ़े छात्रों की तुलना में कमतर आँका जाता है। जबकि यह सत्य है कि प्रतिभा किसी भाषा की मोहताज नहीं होती। आवश्यकता इस बात की है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में हिंदी को समान और सम्मानजनक स्थान मिले। जब तक विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में आत्मविश्वास के साथ अभिव्यक्ति नहीं कर पाएंगे, तब तक उनके व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास संभव नहीं है।
हिंदी हमारी संस्कृति, परंपरा और सभ्यता की संवाहक है। यह केवल संवाद की भाषा नहीं, बल्कि हमारी जड़ों का संरक्षण करने वाली शक्ति भी है। यदि हम इसे नज़रअंदाज़ करेंगे तो अपनी अस्मिता और इतिहास दोनों से कट जाएंगे। इसलिए हिंदी का सम्मान करना केवल एक भाषाई दायित्व नहीं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी भी है।
इस दिशा में सरकार और समाज दोनों को सक्रिय भूमिका निभानी होगी। सरकारी कार्यों में हिंदी का अधिकतम प्रयोग सुनिश्चित हो, शिक्षा संस्थानों में हिंदी माध्यम को मजबूती दी जाए, प्रतियोगी परीक्षाओं और रोजगार के अवसरों में हिंदी को बराबरी का दर्जा मिले और समाज में यह संदेश पहुंचे कि हिंदी में संवाद करना किसी कमजोरी का नहीं, बल्कि गर्व का प्रतीक है।
निष्कर्ष यही है कि हिंदी दिवस महज़ एक औपचारिकता का दिन नहीं, बल्कि आत्ममंथन और संकल्प का अवसर है। हमें ठानना होगा कि हिंदी को उसका वास्तविक स्थान और सम्मान दिलाया जाए। क्योंकि हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि हमारी राष्ट्रीय पहचान, सांस्कृतिक एकता और आत्मगौरव की धड़कन है।