शरद कटियार
कन्नौज (Kannauj) जनपद के तिर्वा स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (Community Health Center) पर कार्यरत डॉक्टर शालिनी द्वारा दी गई तहरीर और उसमें लगाए गए गंभीर आरोप किसी एक व्यक्ति की सुरक्षा और न्याय से जुड़ी मांग भर नहीं हैं, बल्कि यह हमारी न्याय प्रणाली, सामाजिक व्यवस्था और महिला सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े करते हैं।
इस संपादकीय में हम इस घटनाक्रम को सिर्फ एक प्राथमिकी के नजरिए से नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक, कानूनी और नैतिक संदर्भ में समझने का प्रयास करेंगे। डॉक्टर शालिनी द्वारा लगाए गए आरोप, पीड़िता के बयान, अधिवक्ता की भूमिका और पुलिस की शुरुआती कार्रवाई—ये सभी पहलू हमारे लोकतंत्र और संविधान के उन मूलभूत स्तंभों से जुड़े हैं, जिन पर जनता का विश्वास टिका है।
सीएचसी में कार्यरत डॉक्टर स्वस्तिका शालिनी ने पुलिस में शिकायत दी है कि एक कथित दुष्कर्म मामले की गवाही के दौरान आरोपी नवाब सिंह यादव के अधिवक्ता किशोर दोहरे ने न्यायालय परिसर में ही उन्हें और उनके पति डॉ. रविंद्र कुमार को जान से मारने की धमकी दी। आरोप यह भी है कि नवाब सिंह यादव, नीलू यादव और पूजा तोमर ने भी इस घटना में भूमिका निभाई। डॉक्टर शालिनी के अनुसार, उनके पति उस समय जिला अस्पताल कन्नौज में तैनात थे और वहीं मौजूद थे। इसके पश्चात उनके पति पर एक कथित झूठा एससी/एसटी एक्ट का मामला भी दर्ज किया गया।
डॉ. शालिनी ने इस पूरी घटना को न केवल अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए खतरनाक बताया है, बल्कि इसे एक सोची-समझी साजिश करार देते हुए सुरक्षा की मांग की है। पुलिस ने भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023 की धाराओं 224, 132, 49, 232, 61(2), और 351(3) के तहत मामला दर्ज किया है।
इस पूरे प्रकरण में सबसे गंभीर बात यह है कि एक महिला डॉक्टर जो कि एक सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र पर सेवा दे रही हैं, उन्हें खुलेआम हत्या की धमकी दी जा रही है और आरोप के अनुसार यह धमकी एक अधिवक्ता द्वारा दी गई है। यहां सवाल यह उठता है कि अगर एक पढ़ी-लिखी, सिस्टम से जुड़ी महिला को भी खुले तौर पर धमकी दी जा सकती है, तो आम महिलाओं की स्थिति का क्या अनुमान लगाया जाए?
यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि डॉक्टर शालिनी किसी व्यक्तिगत मामले में नहीं बल्कि एक न्यायिक गवाही के दौरान इस पूरे घटनाक्रम की साक्षी थीं। जब कोई नागरिक न्यायालय में गवाही देता है, तो वह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का पालन करता है और उसका संरक्षण भी न्यायपालिका की जिम्मेदारी होती है। ऐसी परिस्थिति में गवाह को धमकाना न केवल अपराध है, बल्कि न्याय व्यवस्था पर सीधा हमला भी है।
एक अधिवक्ता का कार्य सिर्फ अपने मुवक्किल की रक्षा करना नहीं है, बल्कि न्याय व्यवस्था की गरिमा को बनाए रखना भी है। यदि डॉ. शालिनी के आरोप सही साबित होते हैं, तो यह महज एक आपराधिक कृत्य नहीं, बल्कि अधिवक्ता आचरण संहिता का भी खुला उल्लंघन होगा। बार काउंसिल और अन्य कानूनी निकायों को ऐसे मामलों में स्वतः संज्ञान लेते हुए कठोर कदम उठाने चाहिए।
यह घटना हमें उस खतरनाक चलन की भी याद दिलाती है जिसमें पेशेवर नैतिकता को दरकिनार कर निजी प्रभाव, दबाव और हिंसा का सहारा लिया जाता है। वकालत का पेशा एक गरिमामय पेशा है और इसमें इस तरह की घटनाएं पूरे समुदाय पर धब्बा लगाती हैं।
एससी/एसटी एक्ट का कथित दुरुपयोग: एक नया विमर्श
डॉ. शालिनी ने अपनी शिकायत में यह भी उल्लेख किया है कि उनके पति पर झूठा एससी/एसटी एक्ट का मामला दर्ज कर दिया गया। अगर यह आरोप सही है तो यह एक गंभीर विषय है क्योंकि एससी/एसटी एक्ट का उद्देश्य सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों की रक्षा करना है, न कि उसे व्यक्तिगत प्रतिशोध का उपकरण बनाना।
वर्तमान समय में इस एक्ट को लेकर समाज में दो मत हैं। एक पक्ष इसका समर्थन करता है ताकि दलितों और आदिवासियों को न्याय मिले, वहीं दूसरा पक्ष इसके दुरुपयोग की ओर इशारा करता है। यदि कोई व्यक्ति इसे गलत तरीके से उपयोग कर किसी निर्दोष को फंसा रहा है, तो यह पूरे समाज के लिए चिंता का विषय है। यह कानून की मूल भावना के साथ विश्वासघात है।
प्रशंसा की बात यह है कि सदर कोतवाली पुलिस ने इस गंभीर मामले को संज्ञान में लेते हुए त्वरित कार्रवाई की और भारतीय न्याय संहिता की विभिन्न धाराओं में प्राथमिकी दर्ज की। हालांकि अब अगली चुनौती यह है कि मामले की निष्पक्ष जांच हो और आरोपियों के खिलाफ यदि पर्याप्त साक्ष्य मिलें तो कानून के अनुसार सख्त कार्रवाई की जाए।
डॉ. शालिनी द्वारा जताई गई हत्या की आशंका को भी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश में पूर्व में कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं, जहां गवाहों या शिकायतकर्ताओं को जान से हाथ धोना पड़ा है। ऐसे में पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वह न केवल पीड़िता को तत्काल सुरक्षा दे, बल्कि यह सुनिश्चित करे कि न्याय प्रक्रिया में कोई बाधा न आए।
यह घटना समाज को भी एक आईना दिखाती है कि जब तक हम अपनी आंखें बंद रखेंगे और हर अन्याय को “यह तो चलता है” की मानसिकता से देखेंगे, तब तक ऐसे अपराध होते रहेंगे। यदि डॉक्टर शालिनी जैसी शिक्षित महिला आवाज उठाने का साहस कर रही हैं, तो हमें उनके समर्थन में खड़ा होना चाहिए।
सामाजिक संगठनों, महिला आयोग, चिकित्सा संगठनों और वकीलों के संगठनों को इस मामले में अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह केवल एक डॉक्टर या एक महिला का मामला नहीं, बल्कि समाज की उस संरचना का प्रश्न है जिसमें हर नागरिक को बोलने और न्याय पाने का हक है।
डॉक्टर शालिनी का यह मामला एक बड़ी चेतावनी है—सिर्फ न्यायिक तंत्र के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए। यदि समाज के जिम्मेदार और पेशेवर नागरिकों को भी गवाही देने पर जान से मारने की धमकी मिलेगी, तो फिर आमजन की हिम्मत कैसे बचेगी?
इसलिए जरूरी है कि:इस मामले की निष्पक्ष जांच हो और आरोपियों को सख्त सजा मिले।पीड़िता और उनके परिवार को पूर्ण सुरक्षा मिले।अधिवक्ता संगठन इस मामले पर संज्ञान लें और आचार संहिता के अनुसार कार्रवाई करें।यदि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग सिद्ध होता है, तो ऐसे प्रकरणों के लिए पृथक दंड व्यवस्था बनाई जाए। समाज में गवाहों और शिकायतकर्ताओं की सुरक्षा को लेकर नया विमर्श प्रारंभ हो।जब तक गवाह और पीड़ित सुरक्षित नहीं होंगे, तब तक न्याय का कोई अर्थ नहीं रह जाता। डॉक्टर शालिनी की आवाज़ अगर दबा दी गई, तो यह सिर्फ एक महिला की हार नहीं होगी, यह न्याय की हार होगी—और शायद हम सभी की भी।
शरद कटियार
ग्रुप एडिटर
यूथ इंडिया न्यूज ग्रुप