शरद कटियार
भारत के लोकतांत्रिक और सामाजिक ढांचे की नींव समानता और न्याय पर आधारित है। बावजूद इसके, जातीय भेदभाव जैसी समस्याएं आज भी गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं। हाल ही में राजस्थान के अजमेर जिले की एक घटना ने इस समस्या को एक बार फिर उजागर कर दिया। घटना में दलित समुदाय से संबंधित एक दूल्हे की बारात को निकालने के लिए 75 पुलिसकर्मियों की तैनाती की गई। यह घटना न केवल समाज में जातिगत भेदभाव की वास्तविकता को दर्शाती है, बल्कि यह भी साबित करती है कि सरकार और प्रशासन के दावे कितने खोखले हैं।
अजमेर की इस घटना का मुख्य पहलू यह है कि दूल्हे और उसके परिवार को उच्च जाति के विरोध के डर से पुलिस सुरक्षा मांगनी पड़ी। यह बताता है कि आज भी जातीय असमानता समाज में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। यह मामला केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि एक व्यापक सामाजिक समस्या का हिस्सा है।
एक और घटना उत्तरकाशी जिले में देखने को मिली, जहां एक दलित लडक़े को मंदिर में प्रवेश करने के कारण रात भर पीटा गया। इस प्रकार की घटनाएं दर्शाती हैं कि मंदिर, जो आध्यात्मिक और सामाजिक समानता के प्रतीक होने चाहिए, वे भी जातीय भेदभाव का अड्डा बन चुके हैं।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि समाज में जाति आधारित सोच केवल ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानसिकता धार्मिक स्थलों और आधुनिक राजनीतिक विमर्श में भी गहराई से व्याप्त है।
बीजेपी की नीतियां और सामाजिक विफलता
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) हिंदुत्व और समानता के अपने दावे करती है, लेकिन इस संदर्भ में उसकी विफलता साफ दिखती है। बीजेपी का यह कहना कि वह समाज के हर वर्ग को समान अधिकार दिलाने के लिए काम करती है, वास्तविकता में खोखला साबित हो रहा है।
अजमेर की घटना ने यह सवाल खड़ा किया है कि सरकारें और राजनीतिक दल वास्तव में जातिवाद को खत्म करने के लिए कितने गंभीर हैं। क्या केवल हिंदुत्व और विकास के नाम पर समाज को एकजुट करना संभव है, जब दलित समुदाय को अपनी शादी तक के लिए पुलिस सुरक्षा लेनी पड़े? धार्मिक स्थलों पर भेदभाव की घटनाएं यह साबित करती हैं कि बीजेपी के नेतृत्व में समाज को जो समरसता का सपना दिखाया जाता है, वह पूरी तरह से साकार नहीं हो पाया है। यदि सरकार वाकई में दलित समुदाय को मुख्यधारा में लाने के लिए प्रतिबद्ध होती, तो ऐसे मामलों में ठोस और कठोर कार्रवाई की जाती। जातीय भेदभाव का प्रभाव केवल शारीरिक हिंसा या आर्थिक असमानता तक सीमित नहीं है। यह मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक स्तर पर भी समुदायों को कमजोर करता है। अजमेर में दलित दूल्हे की बारात के लिए पुलिस तैनाती यह संकेत देती है कि समाज के कमजोर वर्ग को अभी भी समानता और स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
ऐसे मामलों में न केवल दलित समुदाय के मनोबल को ठेस पहुंचती है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि समाज की मानसिकता अभी भी कितनी पिछड़ी हुई है। जातिवाद केवल एक सामाजिक समस्या नहीं है; यह शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों को भी बाधित करता है।
धार्मिक स्थलों पर भेदभाव की घटनाएं भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई हैं। मंदिर, जो आध्यात्मिक और सामाजिक समानता का केंद्र होना चाहिए, जातीय असमानता के प्रतीक बनते जा रहे हैं। उत्तरकाशी की घटना, जिसमें एक दलित लडक़े को मंदिर में प्रवेश करने के लिए पीटा गया, यह साबित करती है कि धर्म और जाति का संबंध किस हद तक समाज को बांट रहा है।
बीजेपी और अन्य राजनीतिक दल, जो हिंदुत्व और सांस्कृतिक एकता की बात करते हैं, इस मुद्दे पर अक्सर चुप्पी साध लेते हैं। मंदिरों में जातीय असमानता न केवल दलित समुदाय को धार्मिक अधिकारों से वंचित करती है, बल्कि यह सामाजिक बंटवारे को भी बढ़ावा देती है।
जातिवाद को समाप्त करने के लिए केवल नीतियां और कानून पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए समाज के हर वर्ग को मिलकर काम करना होगा। शिक्षा, जागरूकता और आर्थिक समानता के जरिए ही जातिवाद को जड़ से खत्म किया जा सकता है। सरकार को चाहिए कि वह दलित समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव के मामलों में त्वरित और कठोर कार्रवाई करे। साथ ही, धार्मिक स्थलों पर जातीय असमानता को खत्म करने के लिए कठोर नियम बनाए। मंदिरों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर दलित समुदाय के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिए विशेष अभियान चलाए जाने चाहिए। राजनीतिक दलों को केवल वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर समाज में वास्तविक समानता और समरसता लाने के लिए काम करना होगा। चुनावी भाषण और नीतियों में बदलाव की बात करना पर्याप्त नहीं है; इसे लागू करना और परिणाम दिखाना भी आवश्यक है। जातिवाद को समाप्त करने में समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। हर व्यक्ति को जातीय असमानता के खिलाफ खड़े होने की जरूरत है। इसके लिए सबसे पहले अपनी सोच और मानसिकता में बदलाव लाना होगा।
शादी, मंदिर या किसी भी अन्य सामाजिक अवसर पर भेदभाव को खत्म करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। साथ ही, जातीय असमानता के खिलाफ लड़ाई को एक जन आंदोलन का रूप देना होगा। अजमेर और उत्तरकाशी की घटनाएं यह साबित करती हैं कि जातीय भेदभाव आज भी भारतीय समाज में गहराई से मौजूद है। यह न केवल समाज की विफलता है, बल्कि सरकार और प्रशासन की भी। यदि हम वास्तव में एक समरस और समान समाज का निर्माण करना चाहते हैं, तो जातिवाद के खिलाफ एक सशक्त लड़ाई लडऩी होगी। इसके लिए शिक्षा, जागरूकता और सामाजिक जिम्मेदारी के साथ-साथ सरकार की ओर से कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि समाज में वास्तविक बदलाव केवल नीतियों से नहीं, बल्कि उनके सही क्रियान्वयन और लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने से ही संभव है। जातीय भेदभाव को खत्म करना केवल एक सामाजिक आवश्यकता नहीं, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी भी है।
(लेखक,दैनिक यूथ इंडिया के मुख्य संपादक हैं।)
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