विजय गर्ग
स्कूल जाने वाले व स्ट्रीट वेंडर बच्चों की मैथ्स (Maths) में कितना अंतर है। एक रिसर्च में इस बात का खुलासा हुआ है।
भारतीय बच्चों में स्कूल में पढ़ाए जाने वाले मैथ्स और वास्तविक जीवन में काम आने वाली मैथ्स के बीच एक बड़ा अंतर है। यह खुलासा हाल ही में हुए एक नई रिसर्च से पता चला है। स्टडी बताती है कि जहां स्कूल जाने वाले बच्चे ऐकडेमिक मैथ्स में अच्छे होते हैं, वहीं बाजार में काम करने वाले बच्चे जटिल लेन-देन को मानसिक रूप से जल्दी से हल कर सकते हैं, लेकिन वे स्कूल के मैथ्स में संघर्ष करते हैं।
यह अध्ययन नोबेल पुरस्कार विजेता एस्थर डुफलो और अभिजीत बनर्जी सहित शोधकर्ताओं की टीम ने किया है। उन्होंने यह जांचने की कोशिश की कि क्या वास्तविक जीवन में प्राप्त मैथमेटिक्स कौशल स्कूल में उपयोगी हो सकते हैं और क्या स्कूल में सीखी गई मैथमेटिक्स तकनीकें जीवन के वास्तविक दुनिया में काम आती हैं। शोधकर्ताओं ने दिल्ली और कोलकाता के बाजारों में 1,436 बाल विक्रेताओं और 471 स्कूल बच्चों के साथ अध्ययन किया।
इस अध्ययन में यह पाया गया कि बाल विक्रेता जटिल मानसिक गणना को अपने बिक्री लेन-देन में बगैर किसी मदद के हल कर सकते हैं, लेकिन वही समस्या जब उन्हें किताबों में दी जाती है, तो वे उन्हें हल नहीं कर पाते। दूसरी ओर, स्कूल के बच्चे मैथ्स के टेक्स्टबुक वाले सवालों को हल करने में अच्छे होते हैं, लेकिन वे बाजार में होने वाली वास्तविक लेन-देन की गणना नहीं कर पाते।
इस अध्ययन में शामिल सभी बच्चे 17 साल से कम उम्र के थे और अधिकतर 13 से 15 साल के थे। कार्यरत बच्चों में से 1% से भी कम स्कूल जाने वाले बच्चे उन व्यावहारिक बाजार समस्याओं को हल कर पाए जो एक तिहाई कामकाजी बच्चों ने आसानी से हल कर दी थीं। यह दर्शाता है कि कामकाजी बच्चे मानसिक शॉर्टकट्स का इस्तेमाल करते हैं, जबकि स्कूल जाने वाले बच्चे धीमे, लिखित गणना पर निर्भर रहते हैं।
शोधकर्ताओं का मानना है कि भारत में शिक्षा प्रणाली इस अंतर को दूर करने में असफल रही है, जहां स्कूल और वास्तविक जीवन के मैथ्स के बीच कोई तालमेल नहीं है। यह अध्ययन एमआईटी, हावर्ड युनिवर्सिटी और अन्य संस्थाओं के शोधकर्ताओं ने किया है, और इसे नैचुरल जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
स्कूल की शिक्षा प्रणाली में घर और स्कूल के ज्ञान के बीच कोई संबंध नहीं है, जो न केवल स्कूल शिक्षा के लिए बुरा है, बल्कि ऐसे बहुत से टैलेंट को पहचानने में भी मदद नहीं करता, जो पहले से ही मौजूद हैं। उनका कहना है कि पाठ्यक्रम को फिर से सोचने की आवश्यकता है, ताकि बच्चों को दोनों प्रकार के मैथ्स को जोड़कर पढ़ाया जा सके।
इस शोध से यह भी सामने आया कि जब बच्चों से असामान्य मात्रा में सामान खरीदी गई, जैसे 800 ग्राम आलू और 1।4 किलोग्राम प्याज, तो अधिकतर बच्चों ने बिना किसी सहायता के सही गणना की। लेकिन जब उन्हें स्कूल के मैथ्स के सवाल दिए गए, तो उनमें से बहुत कम बच्चे सही जवाब दे पाए।
यह अध्ययन हमें बताता है कि स्कूल में बच्चों को मैथ्स केवल एक करीकुलम के रूप में सिखाया जाता है, और जब वे उसे वास्तविक जीवन में लागू करने की कोशिश करते हैं, तो वह काम नहीं करता।