प्रशांत कटियार
हाल ही में आए एक सरकारी आदेश के तहत छोटे सरकारी विद्यालयों (government school) को पास के बड़े विद्यालयों में मर्ज करने की योजना बनाई जा रही है। आदेश की भाषा में शैक्षिक गुणवत्ता (educational quality),संसाधनों का समुचित उपयोग जैसे शब्द सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई उन काग़ज़ों से कहीं ज़्यादा जटिल और मानवीय है। सरकारी आंकड़े कह सकते हैं कि कुछ स्कूलों में बच्चों की संख्या कम है, लेकिन क्या किसी ने उन बच्चों के हालात समझने की कोशिश की है? क्या यह सवाल पूछा गया कि कम नामांकन की वजहें क्या हैं? क्या कभी किसी अधिकारी ने उन गाँवों के रास्तों पर चलकर देखा है, जो बरसात में कीचड़ और गर्मी में अंगारे बन जाते हैं? क्या यह सोचा गया है कि छह साल के बच्चे की नन्हीं टाँगें रोज़ दो किलोमीटर की दूरी कैसे तय करेंगी?
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 स्पष्ट रूप से कहता है कि 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को स्थानीय स्तर पर मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना सरकार की ज़िम्मेदारी है। ऐसे में यह मर्ज किस अधार पर किया जा रहा है? क्या अब नीतियाँ केवल रिपोर्टों और आकड़ों की कसौटी पर तय होंगी, बिना सामाजिक और भौगोलिक यथार्थ को समझे?जो लोग यह तर्क देते हैं कि सरकारी स्कूलों में नामांकन घटा है, उन्हें यह भी स्वीकारना होगा कि इसमें कहीं न कहीं व्यवस्था की भूमिका भी रही है। सरकार ने जिस तरह से प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा दिया है, वह एक बड़ी वजह है।
कई बार देखा गया है कि निजी विद्यालयों को उसी क्षेत्र में मान्यता दे दी जाती है जहाँ पहले से सरकारी विद्यालय मौजूद हैं। यह अपने आप में नीति विरोधाभास है।दूसरी ओर, जब सरकारी अधिकारियों और शिक्षकों के अपने बच्चे भी सरकारी स्कूलों में न पढ़कर निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं, तो आम ग्रामीण परिवार में यह संदेश जाता है कि सरकारी स्कूल शायद कमतर हैं। यही मानसिकता धीरे-धीरे नामांकन को प्रभावित करती है।सरकार यदि वाकई में शैक्षिक गुणवत्ता सुधारना चाहती है, तो उसे दोतरफ़ा नीति अपनानी होगी।
प्राथमिक विद्यालयों का बुनियादी ढाँचा मज़बूत किया जाए, न कि उन्हें समेटा जाए।प्राइवेट विद्यालयों की अंधाधुंध मान्यता पर रोक लगे, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ पहले से सरकारी स्कूल हैं।एक स्पष्ट आदेश के तहत सभी सरकारी अफसरों और शिक्षकों को अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाने को बाध्य किया जाए। इससे स्कूलों में भरोसा बढ़ेगा और सामाजिक संदेश भी जाएगा कि सरकारी स्कूल गुणवत्तापूर्ण हैं।स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जाए, ताकि स्कूल केवल सरकारी नहीं, सामुदायिक ज़िम्मेदारी भी बनें।
विद्यालयों का मर्ज, केवल काग़ज़ पर किया गया एक प्रशासनिक निर्णय नहीं होना चाहिए। यह बच्चों के भविष्य, उनके सपनों, और एक पूरे गाँव की शिक्षा के अधिकार से जुड़ा प्रश्न है। अगर नीतियाँ जमीन की हकीकत से नहीं जुड़ेंगी, तो वे केवल काग़ज़ी दस्तावेज़ बनकर रह जाएँगी।आज ज़रूरत है संवेदनशील निर्णयों की, न कि सुविधाजनक आदेशों की। हर गाँव का स्कूल, उस गाँव की शान है इसे बनाए रखना सरकार और समाज दोनों की ज़िम्मेदारी है।
लेखक, दैनिक यूथ इंडिया के वरिष्ठ उप संपादक हैँ।