मर्यादा बनाम उग्रता – अब तय करो, किसके साथ हो?
— प्रशांत कटियार
उत्तर प्रदेश में घट रही कुछ हालिया घटनाएं न सिर्फ राज्य की कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती हैं, बल्कि पूरे देश में लोकतंत्र की स्थिरता को लेकर गंभीर चिंता उत्पन्न करती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि समाज का एक हिस्सा अब संवैधानिक प्रक्रियाओं की बजाय, भीड़ के दबाव और जातिगत उन्माद के आधार पर न्याय की परिभाषा तय करने पर तुला है। यह स्थिति अत्यंत खतरनाक है और इससे आने वाले समय में और भी गहरी सामाजिक दरारें उभर सकती हैं।
अलीगढ़ में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ दलित सांसद रामजीलाल सुमन के काफिले पर हमला कर काले झंडे दिखाना और टायर फेंकना, लोकतांत्रिक विरोध नहीं बल्कि अराजकता है। करणी सेना और क्षत्रिय समाज जैसे संगठनों द्वारा खुलेआम हिंसक प्रदर्शन करना इस बात का प्रतीक है कि समाज का एक तबका संविधान के दायरे से बाहर जाकर अपने फैसले थोपने पर आमादा है।भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत जब एक कार्यक्रम में पहुंचे, तो कुछ हिंदू संगठनों ने विरोध करते हुए उनकी न केवल पगड़ी उतार दी, बल्कि नारेबाज़ी और बहिष्कार कर माहौल को विषाक्त बना दिया। यह केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि किसानों के उस संघर्ष का अपमान है, जो लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूती देता है। फर्रुखाबाद मे बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष जवाहर सिंह गंगवार को सोशल मीडिया पर गालियाँ और जान से मारने की धमकियां मिलना इस बात का प्रमाण है कि अब ऑनलाइन मंचों पर भी कानून को ताक पर रखकर भीड़ मानसिकता काम कर रही है। यह प्रवृत्ति न सिर्फ विधिक प्रक्रिया का अनादर है, बल्कि सामाजिक अस्थिरता की जमीन भी तैयार करती है।इन घटनाओं का एक स्पष्ट संकेत है कि लोगों का कानून में भरोसा कम हो रहा है। जब कोई वर्ग स्वयं को न्यायाधीश मानकर फैसला सुनाने लगे, तो यह शासन व्यवस्था के लिए सीधी चुनौती होती है। यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या हम अब भी संविधान से संचालित हो रहे हैं, या फिर जातीय भावनाओं और ऐतिहासिक भावुकता से निर्देशित भीड़तंत्र की ओर लौट रहे हैं?यदि ऐसा ही चलता रहा तो न केवल सामाजिक सौहार्द प्रभावित होगा, बल्कि प्रशासन और सरकार के सामने गंभीर संकट उत्पन्न हो जाएगा। विशेषकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां ओबीसी और दलित समुदाय की जनसंख्या राजनीतिक संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, वहां इस प्रकार की घटनाएं सत्ता की स्थिरता को प्रभावित कर सकती हैं।इन परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को स्वयं संज्ञान लेकर न केवल दोषियों के विरुद्ध कठोर कदम उठाने चाहिए, बल्कि एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो कि राज्य संविधान से चलेगा, न कि भीड़तंत्र से।लोकतंत्र में विरोध आवश्यक है, लेकिन उसकी मर्यादा और माध्यम का सम्मान भी उतना ही अनिवार्य है। अगर कोई व्यक्ति या समूह किसी से असहमति रखता है, तो उसके लिए कानूनी रास्ता अपनाना चाहिए, न कि कानून हाथ में लेना। आज अगर हमने इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया, तो कल यही उग्रता लोकतंत्र की नींव को हिला सकती है।देश संविधान से चले, न कि जातीय उन्माद या ऐतिहासिक क्रोध से यही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

लेखक दैनिक यूथ इंडिया के स्टेट हेड है।