शरद कटियार
भारतीय दर्शन की आत्मा यदि कोई है, तो वह “ब्रह्म” है — वह परम सत्य, जो अनादि, अनंत, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान है। “ब्रह्म” न कोई देवता है, न कोई मूर्ति; वह समस्त अस्तित्व का मूल कारण है। इसी ब्रह्मतत्त्व की व्याख्या हमें उपनिषदों, वेदांत और श्रीमद्भगवद्गीता जैसे शास्त्रों में मिलती है।
और जब यह ब्रह्मतत्त्व सजीव रूप में अवतरित होता है, तब वह धर्म की स्थापना, अधर्म का नाश और लोककल्याण की भावना लेकर आता है। भगवान परशुराम इसी ब्रह्मतत्त्व की क्रियात्मक और न्यायकारी अभिव्यक्ति हैं।
ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है — विस्तार। यह वह चेतना है, जो चर-अचर, दृश्य-अदृश्य, स्थूल-सूक्ष्म हर रूप में विद्यमान है। यह न पुरुष है, न नारी, न रूप है, न आकार। इसे न तो तोड़ा जा सकता है, न ही मापा जा सकता है। यह मन से परे, इंद्रियों से परे है — लेकिन फिर भी सब कुछ उसी में लीन है।
उपनिषद कहते हैं — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” — यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्म ही है। “अहं ब्रह्मास्मि” — मैं स्वयं ब्रह्म हूँ।
ब्रह्म कोई अलग सत्ता नहीं, बल्कि हमारे भीतर की वह दिव्यता है, जो हमें चेतना देती है, ज्ञान देती है, और धर्म के पथ पर चलने की प्रेरणा देती है।
भगवान परशुराम, विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं। उनका जन्म भले ही एक ब्राह्मण कुल में हुआ हो, लेकिन उनका कर्मक्षेत्र समस्त समाज था। वे केवल शास्त्रों में नहीं, शस्त्रों में भी पारंगत थे। वे ज्ञान और शक्ति का अद्वितीय संगम थे।
उनका जीवन केवल एक योद्धा का नहीं, एक तपस्वी, शिक्षक और धर्मरक्षक का था। उन्होंने अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा पर अत्याचारियों के विरुद्ध युद्ध किया, और जब पृथ्वी क्षत्रिय अत्याचारों से त्रस्त हो गई, तो उन्होंने 21 बार अधर्मी क्षत्रियों का संहार किया — यह केवल हिंसा नहीं, न्याय का यज्ञ था।
भगवान परशुराम का सम्पूर्ण जीवन कर्मयोग और धर्मनिष्ठा का प्रतिरूप है। वे ब्रह्मतत्त्व के उस स्वरूप को दर्शाते हैं, जो केवल ध्यान, योग और ज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि जब आवश्यकता हो तो धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र भी उठा सकता है।
उनका क्रोध भी ब्रह्ममय था, क्योंकि वह अहंकार, अन्याय और अधर्म के विरुद्ध था। वे दिखाते हैं कि “ध्यान और शक्ति, दोनों का संतुलन ही सच्चा ब्रह्म है।” आज जब समाज में भ्रष्टाचार, अन्याय, अधर्म, अज्ञान और जातिवाद जैसी समस्याएँ दिन-ब-दिन बढ़ रही हैं, तब भगवान परशुराम जैसे आदर्शों कीआवश्यकता पहले से कहीं अधिक है।उनका जीवन बताता है कि –केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं, धर्म के लिए साहस भी आवश्यक है।
केवल सहनशीलता ही नहीं, समय आने पर सजग प्रतिकार भी जरूरी है।केवल पूजा नहीं, कर्म से धर्म की स्थापना भी जरूरी है।
वे हमें सिखाते हैं कि ब्राह्मणत्व का अर्थ केवल यज्ञ और वेद पाठ नहीं, बल्कि धर्म, न्याय और विवेक के लिए निरंतर संघर्ष करना है।
ब्रह्मतत्त्व एक शुद्ध, निष्कलंक, सर्वव्यापक चेतना है — और भगवान परशुराम इस चेतना के सजीव उदाहरण हैं। उन्होंने केवल अस्त्र नहीं उठाए, बल्कि समाज को यह बताया कि जब कोई सत्ता अधर्म की ओर झुके, तो हर सजग नागरिक को परशुराम बनना चाहिए।
आज जब हम “भगवान परशुराम जयंती” मनाते हैं, तो हमें केवल उनके जन्म की नहीं, उनके सिद्धांतों की पुनः प्रतिष्ठा करनी चाहिए — तभी सच्चे अर्थों में हम ब्रह्मतत्त्व को अपने जीवन में उतार पाएंगे।
जय श्री परशुराम!
धर्म की रक्षा में ही ब्रह्म की प्रतिष्ठा है।