शरद कटियार
उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर शर्मनाक और भयावह मोड़ पर खड़ी है। लोकतंत्र, जो हमारे देश की आत्मा है, आज न केवल सवालों के घेरे में है बल्कि खुलेआम धमकियों और अपमान का शिकार बनता दिख रहा है। हाल ही में एक पूर्व मुख्यमंत्री को मंच से गालियाँ देने और उन्हें गोली मारने की धमकी दिए जाने की घटनाएं न केवल निंदनीय हैं, बल्कि यह देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने पर सीधा हमला हैं। यह केवल एक राजनीतिक घटनाक्रम नहीं है, बल्कि यह हमारे संविधान, हमारे अधिकारों और हमारी आज़ादी के खिलाफ सुनियोजित हमला है।
लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है – असहमति का सम्मान और विचारों की स्वतंत्रता। पर आज जिस तरह से विपक्षी नेताओं को गालियाँ दी जा रही हैं, उन्हें धमकाया जा रहा है और उनके खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल हो रहा है, वह हमारे समाज में बढ़ती असहिष्णुता का प्रतीक है। जो नेता सत्ता में हैं, वे यह भूल जाते हैं कि उनका अधिकार उन्हें जनता ने सौंपा है, न कि किसी राजा-महाराजा की तरह उत्तराधिकार में मिला है। ऐसे में उनका दायित्व बनता है कि वे अपने आचरण से लोकतंत्र की गरिमा को बनाए रखें। पर जब वही लोग मंच से लोकतंत्र को रौंदने वाली भाषा बोलें, तो यह हमारे लिए चेतावनी है कि खतरा बहुत निकट है।
आज की राजनीति में भाषा की मर्यादा जिस तरह टूटी है, वह केवल एक व्यक्ति विशेष पर हमला नहीं है, वह हर उस व्यक्ति पर हमला है जो लोकतंत्र में विश्वास करता है। यह हमला उस सोच पर है जो समानता, शिक्षा, न्याय और अधिकारों की बात करती है। यह हमला उस नई पीढ़ी पर है जो लोकतंत्र को सबसे बड़ा मूल्य मानकर बड़ी हो रही है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर यह गिरावट क्यों? और इससे भी अहम सवाल यह है कि आखिर इस गिरावट पर लगाम कौन लगाएगा? सरकार की चुप्पी क्या इस बात का संकेत नहीं देती कि यह सब कुछ एक रणनीति के तहत हो रहा है? क्या यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि विपक्ष की आवाज को पूरी तरह से दबाया जा सके? ताकि जनता के असली मुद्दों से ध्यान हटाकर एक ऐसा माहौल बनाया जा सके जहाँ केवल डर, नफरत और हिंसा का बोलबाला हो?
एक सत्ताधारी दल के प्रतिनिधि जब सार्वजनिक मंचों से विपक्षी नेताओं को खुलेआम गाली दें और उन्हें जान से मारने की धमकी दें, और उसके बाद भी कोई कार्रवाई न हो, तो यह सिर्फ राजनीतिक संकट नहीं है – यह कानून के शासन की पराजय है। यह न्याय व्यवस्था की विफलता है। और सबसे बढ़कर यह संविधान की आत्मा का अपमान है।
जब सत्ता पक्ष द्वारा संविधान के दायरे से बाहर जाकर ऐसे बयान दिए जाते हैं, तो वह केवल शब्द नहीं होते – वह समाज के भीतर जहर घोलने वाले बीज होते हैं, जो नफरत, विभाजन और हिंसा की फसल के रूप में उगते हैं। हम यह नहीं भूल सकते कि भाषा ही वह माध्यम है जो समाज को जोड़ सकती है या तोड़ सकती है। जब राजनीति की भाषा ही हिंसक और अपमानजनक हो जाए, तो फिर समाज में शांति और सौहार्द की उम्मीद करना भ्रम बन जाता है।
यह समय आत्ममंथन का है – विशेषकर उन लोगों के लिए जो सत्ता में हैं। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि सत्ता परिवर्तनशील होती है। आज जो सत्ताधारी हैं, कल वे विपक्ष में भी हो सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र की मर्यादा और गरिमा को बनाए रखना सबका दायित्व है। लेकिन जब मर्यादा केवल एकपक्षीय बन जाए – यानी विपक्ष की हर बात पर कानूनी कार्यवाही हो, और सत्ता पक्ष की हर आपत्तिजनक बात पर चुप्पी – तो यह असमानता लोकतंत्र की हत्या का ही दूसरा नाम बन जाती है।
वर्तमान परिस्थिति यह स्पष्ट रूप से संकेत कर रही है कि हमारा लोकतंत्र केवल कागजों में बचा है, और व्यवहार में उसकी आत्मा को धीरे-धीरे मारा जा रहा है। यह केवल राजनेताओं की जिम्मेदारी नहीं है कि वे इसे बचाएं – यह हर नागरिक का कर्तव्य है। हर युवा, हर शिक्षक, हर लेखक, हर पत्रकार, हर सामाजिक कार्यकर्ता को इस परिदृश्य को देखना चाहिए और अपने स्तर से प्रतिरोध दर्ज कराना चाहिए।
यह बात साफ होनी चाहिए कि यह लड़ाई अब किसी एक पार्टी की नहीं रह गई है। यह लड़ाई उस विचार की है, जिसमें हम सभी यकीन करते हैं – एक ऐसा भारत जिसमें सबको बोलने का हक हो, विरोध करने का अधिकार हो, और सत्ता से सवाल पूछने की आज़ादी हो। अगर आज हम चुप रहे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमसे सवाल करेंगी – “जब लोकतंत्र की हत्या हो रही थी, तब आप कहां थे?”
इतिहास में ऐसे कई दौर आए जब सत्ता मद में चूर होकर विपक्ष की आवाज को दबाने की कोशिशों में लगी रही – लेकिन हर बार जनता ने लोकतंत्र को पुनः स्थापित किया। चाहे वह आपातकाल का दौर रहा हो या किसी तानाशाह की सत्ता, हर बार जनआंदोलन ने यह साबित किया कि जनता ही सर्वोच्च है। आज भी वैसी ही एक घड़ी है, जब जनता को तय करना है कि क्या वह चुप बैठी रहेगी, या फिर संविधान की रक्षा में सड़कों पर उतरेगी।
लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं है। लोकतंत्र संसद में संख्या बल का नाम नहीं है। लोकतंत्र हर उस व्यक्ति की गारंटी है जो सत्ता से सवाल करता है, जो नाइंसाफी के खिलाफ आवाज़ उठाता है, और जो देश के भविष्य के लिए चिंतित है। आज जब उस गारंटी को ही कुचलने की कोशिश की जा रही है, तो चुप रह जाना क्या अपराध नहीं है?
इस समय समाजवादी कार्यकर्ताओं, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, छात्रों, युवाओं, महिलाओं और समाज के हर वर्ग को एकजुट होकर यह तय करना होगा कि हम किस ओर हैं। क्या हम डर और चुप्पी की राजनीति के साथ हैं, या फिर न्याय, बराबरी और संविधान के पक्ष में खड़े हैं?
इस समय बहुत जरूरी है कि हम सड़कों पर उतरें – परंतु नफरत और हिंसा के साथ नहीं, बल्कि संविधान की किताब हाथ में लेकर, अपने अधिकारों की बात करते हुए, लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाएं। यह केवल प्रतिरोध नहीं होगा – यह एक नई आशा, एक नई क्रांति की शुरुआत होगी।
हम यह न भूलें कि लोकतंत्र किसी सरकार की देन नहीं है, यह हमें उन स्वतंत्रता सेनानियों की विरासत में मिला है जिन्होंने अपनी जानें देकर यह व्यवस्था गढ़ी है। उस व्यवस्था की हत्या को हम केवल इसलिए नहीं देख सकते क्योंकि हम किसी दल, जाति या धर्म से बंधे हैं। इस समय जरूरत है दल से ऊपर उठकर देश को देखने की, धर्म से ऊपर उठकर संविधान को पढ़ने की, और जाति से ऊपर उठकर इंसानियत को बचाने की।
आज जो सत्ता में हैं, उन्हें भी यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र की नींव को खोखला कर वे खुद अपने पैरों के नीचे की ज़मीन काट रहे हैं। इतिहास किसी को माफ नहीं करता – न उन शासकों को जिन्होंने तानाशाही की, और न उन लोगों को जो चुप रहे।
(लेखक दैनिक यूथ इंडिया के प्रधान संपादक हैं)