हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा लाए गए बापू कानून संशोधन को लेकर पूरे देश में गहरी बहस छिड़ी हुई है। इस बहस की आंच ने न केवल राजनीतिक गलियारों को गर्माया है, बल्कि सामाजिक और धार्मिक वर्गों में भी असमंजस की स्थिति पैदा कर दी है। जहां एक ओर नेताओं जैसे नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू समेत तमाम दलों में इस संशोधन को लेकर चिंता व्यक्त की गई है, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज के योगदान और उनके साथ किए जा रहे भेदभाव को लेकर भी चर्चा तेज हो गई है।
कानून में बदलाव का उद्देश्य अगर बसों पर नियंत्रण या समाज के किसी खास वर्ग को अनुशासित करना था, तो यह अधूरा दृष्टिकोण है। अगर सरकार वास्तव में पारदर्शिता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का पालन करना चाहती है, तो फिर हिंदू ट्रस्टों और मंदिरों पर भी वैसा ही नियंत्रण और निगरानी होनी चाहिए, जैसा अन्य धार्मिक संस्थाओं पर किया जा रहा है।
देश की संवैधानिक व्यवस्था किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय के प्रति पक्षपात नहीं करने की मांग करती है। परंतु, कानूनों के कार्यान्वयन और उनके चयनात्मक प्रभाव से यह प्रतीत होता है कि एक खास समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। इससे सामाजिक समरसता में दरार पड़ सकती है।
देश के विभाजन के समय लाखों मुस्लिमों के पास पाकिस्तान जाने का विकल्प था, लेकिन उन्होंने भारत में रहना चुना। यह निर्णय केवल भूगोल का नहीं, बल्कि विचारधारा और भावनात्मक जुड़ाव का था। उन्हें भारत की बहुलता, विविधता और सांस्कृतिक समरसता पर विश्वास था।
इतिहास गवाह है कि मुस्लिम समाज के बुजुर्गों ने भारत की आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा लिया। मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
स्वतंत्रता के बाद भी मुस्लिम समाज ने हर क्षेत्र में देश की सेवा की — चाहे वह भारतीय प्रशासनिक सेवा हो, सेना हो, पुलिस विभाग हो या शिक्षा और चिकित्सा। उनकी निष्ठा, ईमानदारी और देशभक्ति कभी संदेह के घेरे में नहीं रही, जब तक कि कुछ ताकतों ने उन्हें संदेह की दृष्टि से देखना शुरू नहीं किया।
आज जब हम मुस्लिम समाज के योगदान की चर्चा करते हैं, तो यह भी देखना जरूरी है कि पिछले कुछ वर्षों में उनके खिलाफ किस प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार बढ़ा है।
शिक्षा के क्षेत्र में मुस्लिम युवाओं को अपेक्षित अवसर नहीं मिल रहे।
नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी लगातार घट रही है।
मीडिया और राजनीतिक बयानबाज़ी में मुसलमानों को संदेहास्पद और ‘अन्य’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
मॉब लिंचिंग, धार्मिक घृणा और आर्थिक बहिष्कार जैसी घटनाएं मुस्लिम समुदाय के आत्मसम्मान को गहरी चोट पहुंचा रही हैं।
यह सब सांप्रदायिक सौहार्द के ताने-बाने को नुकसान पहुंचाता है।
भारत की पहचान उसकी विविधता और गंगा-जमुनी तहज़ीब से रही है, जहां सभी धर्मों के लोग मिल-जुलकर रहते आए हैं। हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी का योगदान इस तहजीब में रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ा है, वह इस सांस्कृतिक विरासत को खत्म करने पर तुला है।
भाईचारे की जगह संदेह और नफरत ने ले ली है। यह न केवल एक समुदाय विशेष के लिए खतरनाक है, बल्कि भारत जैसे राष्ट्र की आत्मा के लिए भी चुनौतीपूर्ण है।
भारत को यदि सशक्त, सुरक्षित और समरस समाज बनाना है, तो उसे अपने अल्पसंख्यकों के प्रति समान व्यवहार अपनाना होगा। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह किसी धर्म या समुदाय विशेष के खिलाफ नीतिगत निर्णय न ले।
धार्मिक ट्रस्टों का नियमन अगर आवश्यक है, तो वह हर धर्म के संस्थानों पर समान रूप से लागू होना चाहिए।
शिक्षा और रोजगार में बराबरी का अवसर सुनिश्चित किया जाए।
सांप्रदायिक हिंसा और घृणा फैलाने वालों पर सख्त कार्रवाई हो।
मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर नफरत फैलाने वाली सामग्री पर नियंत्रण लगे।
सरकार और समाज के बीच विश्वास बहाली के लिए संवाद प्रक्रिया शुरू की जाए।
आज जब देश नए कानूनों और नई नीतियों की ओर बढ़ रहा है, तो उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि वह किसी भी नागरिक के अधिकारों को न कुचले। मुसलमानों का भारत के प्रति योगदान निर्विवाद है। अगर एक समुदाय को लगातार अलग-थलग किया गया, तो इससे राष्ट्र की एकता और अखंडता को गहरी चोट पहुंचेगी।
भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाना है, तो उसे न्याय, समानता और भाईचारे के मूल सिद्धांतों पर लौटना होगा। केवल कानून बनाकर नहीं, बल्कि उन कानूनों को निष्पक्ष और संवेदनशील तरीके से लागू करके ही हम एक बेहतर भारत की नींव रख सकते हैं।
(लेखक: [शरद कटियार], वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विश्लेषक)