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Friday, June 20, 2025

नवाचार का स्वीकार

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विजय गर्ग

शब्द भाषा और मनुष्य दोनों का अंतरंग है । जो कुछ भी अनकहा हो, उसे न कहा जाए तो जो कहा गया है, उसमें वह अबाध्य शामिल हो जाता है। जीवन उस अबाध्यता को साध लेता है। यह अव्यक्त का रहस्य ही है जो हमें बांधे रखता है जीवन से । जिंदगी अपनी शर्तें उस जीवन से ही लेती है, जिसके साथ उसे चलना है। उनकी कोई सामाजिक प्रासंगिकता भले न हो, लेकिन निज जरूर होती है। जीवन की अवधारणा परिवर्तन की उस लय से नितांत भिन्न होती है, जिसमें हम भविष्य का कल्प रचते हैं। अतीत में अनुगमन करते हुए भविष्य ही हमारे वर्तमान का निर्णायक होता है। कल्पना भले ही विलास की चीज नहीं है, लेकिन जीवन के प्रयोगों में उसका एक कोना सुनिश्चित है। इतिहास किसी पड़ताल का ठोस आधार नहीं हो सकता। उसके लिए ठोस गवाहियों का होना जरूरी है। गवाहियों के लिए केवल भाषा काफी नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे विद्रोह करने के लिए सिर्फ असहमति नाकाफी है। बिना किसी नैतिक आधार के विद्रोह भी महज निजी उत्कंठा बनकर रह जाता जाता है । इतिहास हमारे समकाल के लिए एक सहायक तत्त्व होता है, जिसके द्वारा समकालीन जीवन की विसंगतियों का अनुशीलन होता है । अतीत के वे तमाम लक्षण भी उस इतिहास में मौजूद होते हैं, जिसकी झलकें हम अपने आज में देखते हैं, लेकिन वह महज इतिहास नहीं होता। उसमें स्मृतियां होती हैं, समय होता है, मिथक होते हैं । यह जरूरी नहीं कि वह बहुत गहरा और उदार भी हो ।

अब जबकि सृजन, समय और भूगोल का स्थान भी पार कर गया है, कुछ प्रश्नों से हमें जूझना होगा। सृजन केवल बम फेंकने की त्रासदी से नहीं उपजता । या कहीं युद्धों, महायुद्धों, बाढ़ या भूकम्प से उपजने की राह देखता है। सृजन का संवेदन तत्त्व तो बिना घटना के भी शाश्वत रूप में अंतर्निहित है। वह तो बछिया को दूध पीते भी फूट पड़ता है, वह संतान – जन्म के हुए आभास और उसकी मृत्यु की आशंका दोनों में रचता है। सृ समाज की एक और विसंगति उपजी । कफन खरीदने के लिए बाप- बेटे बाजार जाते हैं। देखते-देखते शाम हो जाती है, पर कोई पसंद दैवी नहीं आता। दोनों ही सामाजिक यथार्थ की आलोचना करते हुए प्रेरणा से मधुशाला पहुंच जाते हैं।

ऐसे में भाव संज्ञा सृजन का मूल होते हुए भी कुछ बहसें निरर्थक लगती है। मगर यह सत्य है कि च को निर्मम और तटस्थ हुए बगैर नहीं देखा जा सकता… इतिहास को लौटाया नहीं जा सकता है और न वर्तमान की प्रक्रियाओं को अतिक्रमित कर भविष्य को पाया जा सकता है, लेकिन वर्तमान की चोट से बौखलाए लोगों में इतिहास और भविष्य की तरफ लपकने की प्रवृत्ति अवश्य सक्रिय हो जाती है। जरूरी है साहित्य में भाषागत आचार संहिताओं के साथ नवाचार का स्वागत हो । अपने समय के विद्रूप से टकराना लेखक की बाध्यता है। वह इससे पलायन नहीं कर सकता। इनसे टकराने और इनके समाधान खोजने का उद्यम अतीत में जाकर भी हो सकता है, क्योंकि कोई भी विसंगति अनायास नहीं होती। इसकी जड़ें अतीत में सुदूर होती हैं ।

जीवन-जगत के परिवर्तनों के साथ-साथ बदलते जाते हैं मानवीय रिश्ते और उसी के समांतर साहित्य-सृजन में भी परिवर्तन आता जाता है । लेखकों को ही नहीं, दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति को नवाचारों का सहारा लेकर अपने समकाल को सुंदर बनाने का उद्यम करना होता है। संस्कृति का जिस ‘लोक’ से, श्रमशील जनता से सीधा संबंध था, वह ‘लोक’ बदलाव के साथ क्रमशः गौण होता गया। जन-संस्कृति के स्थान पर धन- संस्कृति और अभिजन संस्कृति प्रमुख होती गई। यह संशय सत्य में न बदल जाए कि भारत के प्रत्येक शहर में अमेरिका है। हम केवल लेखक होकर ही संवेदनशील नहीं हो सकते। अगर हमारे पास मूल्य हैं जीवन के तो हम बिना किसी विशेषण भी समाज के नवाचार में बहुत कुछ चुप्पी के साथ दे सकते हैं। इसीलिए कवि जहां मनीषी होता है, वहीं मूल्यान्वेषी भी होता है । ऐसे में बहुत कुछ थोपा नहीं जाएगा, क्योंकि बहुत कुछ थोपे गैर भी हमारे भीतर बना रहेगा । उससे तो हमें जूझना ही है । फिर नए से व्यथित क्यों? समय के साथ मोह भंग तो नहीं होता, रूपांतरित होता है और उस रूपांतरण में हम उसे बेखबर से छोड़ देते हैं, अपने सहज रूप में उलझने के लिए।

पर्दे हटते हैं और हम प्रक्रियाओं को घटित होते देखते हैं। प्रक्रियाएं जो वर्चस्व के संसार का प्रतिलोम भी हैं। वर्तमान में घिसकर एक विचार किसी औजार की तरह भविष्य में धारदार हो जाता है। हम उस धार में कितने मनुष्यगामी बने रहते हैं ? नए खिलौनों और कपड़ों की तरह हम बहुत कुछ स्वीकार रहे हैं । इतिहास या अतीत भी आखिरकार अतीत के मस्तक पर वर्तमान लिखा जाता है। मधुमक्खियों छत्ते हों या बया का घोंसला, सदियों से एक जैसा ही बना रहा। भला उनकी प्रकृति क्यों नहीं बदली ? मनुष्य के पास सृजन और पुनर्मृजन की क्षमता और सामर्थ्य है। इसलिए वह विविधता के साथ जीने का आदी हो गया है । प्रश्न यही है उस विविधता में जीवन मूल्य कितने हैं । चिर पुरा, चिर नवीन जीवन से अभिन्न है। उनकी प्रासंगिकता ही उनका चलन बनाए रखती है। फिर पीढ़ी कोई भी हो, इसलिए बदलाव के भी कुछ स्थायी भाव हो सकते हैं।

रचनात्मक व्यक्ति इसे अपने तरीके से व्यक्त करता है, चाहे स्थिति कैसी भी हो । तब भी, जब वह कहीं किसी पुल गुजर रहा होता है या किसी नदी के तट पर रहकर किसी ऐसी सड़क को पार कर जाता है, जिसमें उसकी अव्यक्त स्वतंत्रता का रहस्य छिपा है। स्वतंत्रता केवल अभिव्यक्ति की नहीं होती ‘अव्यक्त’ की भी होती है। ‘अव्यक्त’ की सत्ता एक व्यवस्था भी है।

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