करीब दो साल बाद समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म खां का जेल से बाहर आना सिर्फ़ एक कानूनी घटना भर नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए बड़े संकेत भी छोड़ गया है। सीतापुर जेल से उनकी रिहाई के पल को उनके समर्थकों ने एक उत्सव की तरह मनाया। कड़ी सुरक्षा, पुलिस फोर्स और पीएसी की मौजूदगी इस बात की गवाह रही कि प्रशासन भी इस रिहाई को कितनी गंभीरता से ले रहा था।
आज़म खां पर कुल 104 मामले दर्ज हैं, जिनमें से अधिकांश में उन्हें पहले ही ज़मानत मिल चुकी है। यह तथ्य बताता है कि न्यायिक प्रक्रिया कितनी लंबी और जटिल है। दो साल की कैद के बाद भी उनका राजनीतिक कद बरकरार है और यही वजह है कि उनकी रिहाई ने सपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच नई ऊर्जा भर दी है।
पर सवाल यह भी है कि क्या राजनीति में विरोधियों को कानूनी लड़ाई में उलझाना अब एक सामान्य रणनीति बन चुकी है? और यदि ऐसा है, तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए चिंता का विषय है। लोकतंत्र में अदालतें ही अंतिम सहारा होती हैं, और आज़म खां की रिहाई ने एक बार फिर न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसकी भूमिका को रेखांकित किया है।
उनके जेल से बाहर आते ही समर्थकों का उमड़ता सैलाब इस बात का संकेत है कि आज़म खां अब भी सपा के लिए एक बड़ा चेहरा हैं। उनका अगला कदम पार्टी की राजनीति को नई दिशा दे सकता है। हालांकि, यह भी उतना ही सच है कि उनके खिलाफ कानूनी चुनौतियाँ अभी खत्म नहीं हुई हैं।
आज़म खां का जेल से निकलना उनके लिए व्यक्तिगत राहत है, लेकिन राजनीति के लिए यह एक बड़ा संदेश है—कि विरोध चाहे कितना भी गहरा हो, जनता और संगठन का विश्वास यदि कायम रहे, तो सियासी जमीन कभी सूखी नहीं पड़ती। अब देखना होगा कि जेल से बाहर आने के बाद आज़म खां अपनी राजनीतिक भूमिका को किस तरह से आगे बढ़ाते हैं—क्या वे आक्रामक तेवर अपनाएंगे या एक संयमित रणनीति के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ेंगे।
रिहाई के इस क्षण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि राजनीति में व्यक्ति नहीं, बल्कि प्रतीक मायने रखते हैं—और आज़म खां का नाम अब भी सपा समर्थकों के लिए एक मजबूत प्रतीक बना हुआ है।






