शरद कटियार
फर्रुखाबाद में महाराणा प्रताप की प्रतिमा स्थापना पर रोक: क्या राष्ट्रनायकों का सम्मान भी अब राजनीतिक सौदेबाजी बन गया है?
जब बात देश के गौरव, साहस और स्वाभिमान की प्रतीक महान विभूतियों की हो, तो राजनीति को मौन रहना चाहिए। लेकिन उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में जो कुछ भी हाल ही में घटित हुआ, उसने न केवल प्रशासनिक इच्छाशक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाया है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया है कि अब राष्ट्रपुरुषों का सम्मान भी राजनीति की बलि चढ़ने लगा है।
फर्रुखाबाद रोडवेज बस स्टॉप पर महाराणा प्रताप की प्रतिमा स्थापना का प्रस्ताव शासन स्तर से स्वीकृत हो चुका था। ज़मीन भी उपलब्ध थी—वो ज़मीन जिसे पूर्व जिलाधिकारी मानवेंद्र सिंह ने अवैध कब्जे से मुक्त कराया था। लेकिन अचानक एक दूसरी रिपोर्ट के आधार पर अनुमति रद्द कर दी गई। सवाल यह है कि कौन हैं वो ताकतें, जो 2.84 लाख क्षत्रिय मतदाताओं और 56 हजार पूर्व सैनिकों की भावनाओं को दरकिनार कर, सियासी हितों को प्राथमिकता दे रही हैं?
जब सेल्फी पॉइंट बन सकता है, तो महाराणा प्रताप की प्रतिमा क्यों नहीं?
नगर के कई सार्वजनिक स्थानों पर सेल्फी प्वाइंट, फाउंटेन और आर्ट इंस्टॉलेशन सहजता से स्वीकृत हो जाते हैं, लेकिन जब बात महाराणा प्रताप जैसे राष्ट्रीय नायक की आती है, तो नियमों की दुहाई दी जाने लगती है। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं है?
यह वही प्रतिमा है जिसकी परिकल्पना भाजपा नेता और अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री राघवेंद्र सिंह ने की थी। इसे तीन महीने पहले ही तैयार करा लिया गया था। पूर्व डीएम बीके सिंह ने इसकी अनुमति शासन को भेजी थी और सभी संबंधित अधिकारियों ने संस्तुति भी दे दी थी।
लेकिन खेल तब शुरू हुआ जब राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ में कुछ नेताओं ने प्रतिमा स्थापना को व्यक्तिगत चुनौती मान लिया।
सूत्रों के अनुसार, जिले के एक भाजपा विधायक—जो पूर्व में बसपा में थे—ने इस प्रतिमा स्थापना के विरोध में रणनीति बनाई। आरोप है कि उन्होंने ही परिवहन विभाग के अधिकारियों पर दबाव बनाकर दूसरी रिपोर्ट बनवाई, जिससे प्रतिमा के लिए दी गई अनुमति निरस्त कराई जा सके। इसके पीछे उनकी मंशा थी कि प्रतिमा उनके मनचाहे स्थान, धीरपुर चौराहे पर लगे और श्रेय भी उन्हीं को मिले।
यह न केवल राजनीतिक अवसरवादिता है, बल्कि एक समुदाय और राष्ट्रपुरुष के सम्मान के साथ सीधा खिलवाड़ भी है।
इस पूरे घटनाक्रम में जिलाधिकारी आशुतोष कुमार द्विवेदी की भूमिका साफ रही। सूत्र बताते हैं कि उन्हें इस षड्यंत्र की जानकारी नहीं थी, लेकिन यह भी सवाल उठता है कि प्रशासनिक अधिकारियों को बिना जांच पड़ताल के किसी भी रिपोर्ट पर सहमति क्यों देनी चाहिए?
परिवहन निगम के प्रबंध निदेशक मासूम सरवर आलम की भूमिका भी संदिग्ध मानी जा रही है। यह वही अधिकारी हैं, जिन्होंने बिना कारण बताए पहले से दी गई अनुमति पर रोक लगा दी। आखिर यह फैसला उन्होंने किसके दबाव में लिया?
स्थिति तब बदली जब पर्यटन मंत्री ठाकुर जयवीर सिंह और परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह ने हस्तक्षेप किया। जयवीर सिंह स्वयं रात में स्थल पर पहुंच कर निरीक्षण करते दिखे। वहीं, संजय निषाद और सांसद रमेश अवस्थी जैसे नेताओं ने भी प्रतिमा स्थापना के समर्थन में खुलकर बयान दिए। यह दिखाता है कि सत्ता के भीतर ही अब दो धाराएं चल रही हैं—एक जो परंपरा और संस्कृति को सम्मान देने की पक्षधर है, और दूसरी जो इसे राजनीति का जरिया बना रही है।
अब बस अड्डा होगा महाराणा प्रताप के नाम से
शासन ने अब न केवल प्रतिमा स्थापना की प्रक्रिया को पुनः शुरू करने के निर्देश दिए हैं, बल्कि बस अड्डे का नाम भी ‘महाराणा प्रताप बस स्टैंड’ रखने का प्रस्ताव मंगाया है। यह उन हजारों लोगों की जीत है, जिन्होंने अपने पूर्वजों के सम्मान की लड़ाई लड़ी।
लेकिन यह निर्णय केवल एक स्थान, एक नाम या एक प्रतिमा तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह उस मानसिकता की हार है जो ऐतिहासिक विरासत को सियासी कुर्सियों की राह में रोड़ा मानती है।
महाराणा प्रताप केवल क्षत्रिय समाज के ही नहीं, पूरे भारतवर्ष के प्रतीक हैं। उनका जीवन पराक्रम, त्याग और आत्मसम्मान का प्रतीक है। जो समाज ऐसे नायकों का सम्मान नहीं करता, वह कभी आत्मसम्मान से नहीं जी सकता।
आज जब भारत विश्वमंच पर सांस्कृतिक पुनर्जागरण की बात करता है, तो हमें यह भी देखना होगा कि स्थानीय स्तर पर हम अपनी विरासतों का कितना सम्मान कर पा रहे हैं। यदि एक प्रतिमा लगाने तक में इतनी राजनीति हो रही है, तो फिर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सिर्फ भाषणों और नारों तक सीमित रह जाएगा।
सवाल बाकी हैं,
क्यों बार-बार प्रतिमा स्थापना की राह में रोड़े अटकाए गए?
किसके इशारे पर परिवहन विभाग ने अनुमति रद्द की?
क्या भाजपा के अंदर ही ऐसे तत्व मौजूद हैं जो अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय प्रतीकों से खिलवाड़ कर सकते हैं?
क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कराएंगे?
इस पूरे प्रकरण ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि जब जनभावनाओं की अवहेलना होती है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। लेकिन जब जनसमूह संगठित होकर अपने अधिकारों की आवाज़ उठाता है, तो सत्ता को झुकना ही पड़ता है।
महाराणा प्रताप की प्रतिमा केवल एक संरचना नहीं है, बल्कि यह आत्मगौरव, परंपरा और भारतीय अस्मिता का प्रतीक है। और जो भी इसका अपमान करेगा, इतिहास उसे कभी क्षमा नहीं करेगा।