प्रशांत कटियार
बिजनौर में सामने आई एक दर्दनाक और शर्मनाक घटना ने हमारे सरकारी सिस्टम की संवेदनहीनता को फिर से उजागर कर दिया है। एक अज्ञात घायल व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद उसका शव पूरे 45 दिनों तक मुर्दाघर में यूं ही पड़ा रहा न कोई परिजन आया, न ही पुलिस ने नियमानुसार उसका अंतिम संस्कार कराया। जब तक मामला जिला मुख्य चिकित्सा अधिकारी तक नहीं पहुंचा, तब तक सिस्टम की नींद ही नहीं टूटी।
15 अप्रैल को नूरपुर स्टेट हाईवे पर एक घायल व्यक्ति मिला, जिसे मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया। इलाज के दौरान 22 अप्रैल को उसकी मृत्यु हो गई। अस्पताल ने पुलिस को सूचना दी और शव को नियमानुसार पोस्टमार्टम हाउस में रखवाया गया।
यहां से शुरू हुआ उपेक्षा का सिलसिला 72 घंटे की तय सीमा बीत गई, कोई पहचान नहीं हुई, लेकिन पुलिस शव को लावारिस मानकर अंतिम संस्कार कराना ही भूल गई। नतीजतन, शव करीब डेढ़ महीने तक फ्रीजर में पड़ा रहा।45 दिन बाद, जब मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. कौशलेंद्र सिंह को इसकी जानकारी हुई, तो उन्होंने एसपी अभिषेक झा को पत्र लिखा। यह पत्र आते ही पुलिस विभाग में हड़कंप मच गया। जांच में लापरवाही उजागर हुई, और कोतवाली में तैनात हेड मोहर्रिर चेतन सिंह को निलंबित कर दिया गया। फिर जाकर पोस्टमार्टम हुआ और 45 दिन बाद शव का अंतिम संस्कार गंगा बैराज घाट पर कराया गया।
स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि उन्होंने समय से सूचना दी थी। पुलिस ने यह जिम्मेदारी निभाने में लापरवाही की। एसपी ने भी माना कि यह गंभीर चूक थी, और भविष्य में ऐसे मामलों में सख्ती बरती जाएगी।क्या किसी शव की गरिमा इतनी कम है कि वह सिस्टम की फाइलों में गुम हो जाए?जब एक मृत देह के सम्मान में इतनी लापरवाही बरती जा सकती है, तो आम नागरिकों की सुरक्षा का क्या भरोसा?
यह घटना सिर्फ एक भूल नहीं, बल्कि उस मानवीय संवेदना की कमी है जो हमारे सिस्टम से धीरे धीरे खत्म होती जा रही है। शव का सम्मान भी उतना ही जरूरी है जितना जीवित व्यक्ति का अधिकार। अब जरूरी है कि ऐसी घटनाएं सिर्फ निलंबन और पत्राचार तक सीमित न रहें, बल्कि जवाबदेही और संवेदनशीलता को व्यवस्था का हिस्सा बनाया जाए।