उत्तर प्रदेश सरकार की राज्य मंत्री प्रतिभा शुक्ला को अपने ही कार्यकर्ताओं पर दर्ज हुए मुकदमे के विरोध में धरने पर बैठना पड़ा।
प्रश्न: क्या उत्तर प्रदेश में मंत्री की भी कोई सुनवाई नहीं?
मंत्री भी मजबूर? ये लोकतंत्र की असफलता का संकेत है
जनता जनप्रतिनिधियों को इसलिए चुनती है ताकि वे शासन-प्रशासन के बीच एक पुल बनकर जनभावनाओं की रक्षा करें। लेकिन जब एक सत्तारूढ़ दल की मंत्री, सरकार का हिस्सा होने के बावजूद, थाने के सामने बैठकर न्याय की भीख मांगने को मजबूर हो जाएं, तो यह लोकतंत्र की कार्यशीलता पर करारा तमाचा है।
राज्य मंत्री प्रतिभा शुक्ला को यह कदम तब उठाना पड़ा जब उनके करीबी कार्यकर्ताओं के खिलाफ कथित रूप से मनमाने ढंग से एफआईआर दर्ज की गई। कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और पुलिस के रवैये से आहत मंत्री ने कोतवाली परिसर में धरना शुरू किया। यह दृश्य न केवल आश्चर्यजनक था, बल्कि राज्य में प्रशासनिक जवाबदेही की गिरती हालत को भी उजागर कर गया।
यह सिर्फ मंत्री का धरना नहीं, बल्कि सत्ताधारी तंत्र के भीतर संवादहीनता की चीख है
एक मंत्री का अधिकारी से नाराज़ होना सामान्य बात हो सकती है। लेकिन जब मंत्री को अपनी ही सरकार के अधिकारी से बातचीत करने के बजाय धरने जैसे कदम उठाने पड़ें, तो यह बताता है कि प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व के बीच संवाद का तंत्र ध्वस्त हो चुका है।
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे गंभीर बात यह रही कि मंत्री को केवल तब आश्वासन मिला जब उन्होंने धरना शुरू किया। यानी जब तक दबाव न बने, तब तक अधिकारी सुनने को तैयार नहीं। यह अफसरशाही की वही मानसिकता है, जो कई जिलों में जड़ें जमा चुकी है—जहाँ अफसर खुद को सत्ता से ऊपर मानने लगे हैं।
प्रदेश में कई जगहों पर यह देखा जा रहा है कि डीएम और एसपी स्तर के अधिकारी जनप्रतिनिधियों की बातों को गंभीरता से नहीं लेते। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जो प्रशासनिक व्यवस्था को “जनविरोधी” और “उत्तरदायित्वहीन” बना देती है।
इसका कारण दो हो सकते है।
दोनों ही स्थिति में लोकतंत्र कमजोर होता है।
राज्यमंत्री प्रतिभा शुक्ला ने कहा कि उन्हें संबंधित इंस्पेक्टर को हटाने का आश्वासन मिल गया है, इसलिए उन्होंने धरना समाप्त किया। लेकिन सवाल यह है कि अगर कोई मंत्री भी धरने पर न बैठतीं, तो क्या कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी पर पुनर्विचार होता? क्या किसी भी प्रशासनिक अधिकारी से जवाब मांगा जाता?
यह घटना सिर्फ एक मंत्री के असंतोष की नहीं, बल्कि एक ऐसी प्रणाली की है जो धीरे-धीरे लोकतंत्र की आत्मा को निगल रही है। जब मंत्री भी सड़क पर बैठकर न्याय की मांग करें, तो समझ लीजिए कि अब सत्ता के भीतर भी सत्ता शून्य हो चला है।
जनप्रतिनिधियों को केवल चुनावों में याद करने वाले अधिकारियों को यह समझना होगा कि लोकतंत्र में जनता के नुमाइंदों का अपमान, जनमत का अपमान है।
शरद कटियार