प्रशांत कटियार
न्याय में देरी, अन्याय की एक और शक्ल है।यह कथन आज के भारत में साक्षात् रूप ले चुका है। देश की जेलों में बंद हर चार में से तीन कैदी विचाराधीन हैं, यानी ऐसे लोग जिन पर अपराध साबित नहीं हुआ, लेकिन वे सालों से सलाखों के पीछे हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की जेलों में 75 कैदी विचाराधीन हैं। यह आंकड़ा न केवल हमारे न्यायिक तंत्र की जर्जरता को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि गरीबी और सामाजिक हाशिये पर खड़े वर्गों के लिए न्याय अब एक विलासिता बन गई है।
विचाराधीन कैदी वे हैं जिन पर मुकदमा चल रहा है, लेकिन अदालत का फैसला अब तक नहीं आया। इनमें बड़ी संख्या दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों और मुसलमानों की है, जिनके पास न पर्याप्त संसाधन हैं, न कानूनी जानकारी। वकील करना इनके लिए एक सपना है, और ज़मानत लेना असंभव। इस कारण कई निर्दोष लोग बिना दोष सिद्ध हुए भी वर्षों तक जेलों में बंद रहते हैं। यह न्याय नहीं, संवैधानिक उत्पीड़न है।
भारतीय न्यायपालिका इस समय ऐसे मुकदमों के भार से दबी है जिसे संभालना अब लगभग असंभव होता जा रहा है सुप्रीम कोर्ट में लगभग 80,000 मुकदमे लंबित हैं। देश के 25 हाईकोर्ट्स में 60 लाख से अधिक मामले अधर में हैं।सबसे भयावह स्थिति देश की ज़िला और सत्र न्यायालयों की है, जहां 4.2 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में ही 11 लाख से अधिक मुकदमे वर्षों से विचाराधीन हैं।
जब अदालतें वर्षों तक सुनवाई नहीं कर पातीं, तो जेलें विचाराधीन कैदियों से भर जाती हैं। इस विलंबित प्रक्रिया में जेल सजा से पहले की सजा बन जाती है।भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। जब कोई व्यक्ति बिना दोष सिद्ध हुए जेल में सड़ता है, तो यह अधिकार केवल छिनता नहीं, बल्कि संवैधानिक लोकतंत्र का मखौल बन जाता है। ऐसे में न्यायिक देरी खुद एक संस्थागत हिंसा का रूप ले चुकी है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 498A (दहेज उत्पीड़न) का मूल उद्देश्य स्त्रियों की सुरक्षा था, लेकिन आज इसके दुरुपयोग के मामले बढ़ते जा रहे हैं। शिकायत मिलते ही लड़के, उसके माता-पिता व अन्य परिजनों को तत्काल जेल भेज दिया जाता है, जबकि जांच और विवेचना बाद में होती है। कई बार आरोप झूठे सिद्ध होते हैं, लेकिन तब तक पीड़ित परिवार अपनी सामाजिक और मानसिक प्रतिष्ठा खो चुका होता है। इसी तरह 7 वर्ष से अधिक सजा वाले अपराधों में बिना पूरी जांच के गिरफ्तारी का चलन भी अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। आरोप पत्र दाखिल होने तक (अधिकतम 90 दिन) का इंतज़ार भी कई बार जेल में ही बीतता है, और अभियुक्त को एक अपराधी की तरह सलूक झेलना पड़ता है, भले ही बाद में वह निर्दोष सिद्ध हो।
व्यवस्था में संवेदना और सुधार जरूरी इसलिए फास्ट ट्रैक कोर्ट्स की संख्या बढ़ाई जाए और इन्हें विशेष प्रशिक्षण और संसाधन दिए जाएं। जमानत प्रक्रिया को सरल, तेज और मानवीय बनाया जाए, खासकर गरीबों के लिए। कानूनी सहायता प्राधिकरण को प्रभावी बनाया जाए ताकि हर विचाराधीन कैदी को निःशुल्क और योग्य वकील मिल सके।
ई कोर्ट्स को ज़िला स्तर तक सशक्त बनाकर सुनवाई प्रक्रिया को डिजिटल रूप से सरल और तेज किया जाए।हर जेल में एक न्यायिक समीक्षा बोर्ड हो जो यह सुनिश्चित करे कि कोई भी कैदी वर्षों से बिना सुनवाई के जेल में न पड़ा हो। पुलिस प्रशिक्षण में संवेदनशीलता और विवेकशीलता को शामिल किया जाए ताकि गिरफ्तारी अंतिम विकल्प हो, प्राथमिक प्रतिक्रिया नहीं।
भारत जैसे लोकतंत्र में यह स्थिति शर्मनाक और चिंताजनक है कि लाखों लोग सिर्फ इसलिए जेल में हैं क्योंकि अदालतों के पास समय नहीं है। यह न्याय नहीं, अन्याय की कानूनी जामा पहनाई गई तस्वीर है। हमें यह समझना होगा कि न्याय तब तक न्याय नहीं है जब तक वह समय पर, निष्पक्ष और सबके लिए समान रूप से सुलभ न हो। भारत को अब ‘विचाराधीन नहीं, विचारशील न्याय प्रणाली’ की आवश्यकता है जो न केवल कानून की किताबों से, बल्कि मानवता की कसौटी पर भी खरी उतरे।
(लेखक दैनिक यूथ इंडिया के डिप्टी एडिटर है।)