यूथ इंडिया समाचार
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के लिए आज का दिन ऐतिहासिक बन गया। प्रदेश के पहले अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला रविवार को लखनऊ पहुंचे। अमौसी एयरपोर्ट पर उतरते ही उनका स्वागत उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने पुष्पगुच्छ भेंट कर किया।
सरकार ने उन्हें राज्य अतिथि (स्टेट गेस्ट) का दर्जा दिया है। लखनऊ शहर में आज उनके सम्मान में रोड शो, जनसंवाद और भव्य सम्मान समारोह का आयोजन किया गया है।
लखनऊ की सडक़ों पर रविवार को ऐतिहासिक नजारा देखने को मिला। चारबाग से हजरतगंज तक रोड शो में छात्रों और आम जनता की भारी भीड़ उमड़ी। शहर को फूलों, बैनरों और लाइटिंग से सजाया गया। डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने कहा कि आज पूरा प्रदेश गर्व महसूस कर रहा है। शुभांशु शुक्ला ने अंतरिक्ष में जाकर देश और प्रदेश का नाम रोशन किया है। वे युवाओं के लिए प्रेरणा हैं।
छात्रों और युवाओं ने सोशल मीडिया पर शुभांशु को क्क का नील आर्मस्ट्रांग बताया। स्कूलों-कॉलेजों में विशेष प्रोजेक्टर से उनके मिशन की झलकियां दिखाई जा रही हैं लखनऊ में आज का दिन सिर्फ एक सम्मान समारोह नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश की अंतरिक्ष उपलब्धि का उत्सव बन गया है। भारतीय वायुसेना के ग्रुप कैप्टन और अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला का सोमवार सुबह चौधरी चरण सिंह अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर भव्य स्वागत हुआ। सुबह 8:30 बजे एयर इंडिया की फ्लाइट से परिवार संग पहुंचे शुभांशु का स्वागत उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक और महापौर सुषमा खर्कवाल ने किया। एयरपोर्ट के बाहर हजारों की संख्या में स्कूली बच्चे तिरंगा लहराते खड़े थे। बारिश के बावजूद उनके जोश और उत्साह में कोई कमी नहीं दिखी। बच्चों ने देशभक्ति के नारों से माहौल गुंजायमान कर दिया। यह लखनऊ यात्रा शुभांशु शुक्ला की आईएसएस (अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन) से लौटने के बाद पहली यात्रा है। शहर में जगह-जगह तोरण द्वार सजाए गए, जबकि शाम को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ओर से लोक भवन में नागरिक अभिनंदन समारोह आयोजित किया जाएगा। एयरपोर्ट से निकलने के बाद जी-20 चौराहे से एक भव्य रोड शो आयोजित हुआ। इस दौरान भाजपा महानगर कमेटी की ओर से कई स्थानों पर पुष्पवर्षा की गई। सीएमएस गोमती नगर विस्तार कैंपस में शुभांशु शुक्ला का विशेष स्वागत हुआ। यहां छात्रों ने परेड निकालकर उन्हें सैल्यूट किया और उनके माता-पिता का भी सम्मान किया गया। शुभांशु ने बच्चों के साथ लंच किया और अंतरिक्ष से जुड़े सवालों का धैर्यपूर्वक उत्तर दिया। इस अवसर पर त्रिवेणी नगर वार्ड में घोषणा की गई कि सीतापुर मुख्य मार्ग से फ्लोरेंस नाइटेंगल स्कूल तक की सडक़ का नाम अब “शुभांशु शुक्ला मार्ग” होगा। उनके आगमन से पहले ही सडक़ का नवीनीकरण किया जा चुका था।
सफलता पर सबका हक, संघर्ष में कोई नहीं
जब एक व्यक्ति अपनी सीमित क्षमताओं, कठिन परिस्थितियों और संघर्षों के बावजूद सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँचता है, तो समाज और व्यवस्था उसकी इस यात्रा को शायद ही पूरी तरह समझ पाते हैं। यह विडंबना ही है कि जब वह संघर्ष कर रहा होता है, तब उसका साथ देने वाला कोई नहीं होता। उस समय उसे अपनी ही छाया से लडऩा पड़ता है, अपनी ही हिम्मत को ढाल बनाकर आगे बढऩा होता है। कोई हाथ थामने नहीं आता, कोई मार्गदर्शन देने नहीं आता, और ना ही कोई ढाढस बँधाता है। लेकिन जैसे ही सफलता की रौशनी उस पर पड़ती है, वैसे ही हर कोई उस प्रकाश में अपनी परछाई देखने की कोशिश करता है।
भारत जैसे देश में, जहाँ राजनीति हर क्षेत्र में अपनी गहरी पैठ बना चुकी है, वहाँ व्यक्तिगत सफलता को भी राजनैतिक लाभ के उपकरण में तब्दील कर दिया जाता है। एक सामान्य इंसान जब अत्यधिक परिश्रम, त्याग और तपस्या के बाद कोई मुकाम हासिल करता है, तब नेताओं की पंक्ति तैयार हो जाती है उसके कंधों पर अपने तमगे टाँकने के लिए। “उत्तर प्रदेश की बेटी” या “भारत का बेटा” जैसे जुमले गढ़े जाते हैं, ताकि उस व्यक्ति की उपलब्धि को एक राज्य, एक सरकार या एक दल के नाम से जोडक़र प्रचारित किया जा सके। यह एक सुनियोजित रणनीति होती है—किसी और की मेहनत को अपनी राजनीतिक चादर में लपेटकर सत्ता की कुर्सी को और मजबूत करना।
लेकिन क्या किसी की पीड़ा, संघर्ष, अकेलापन और मानसिक यातना को कोई समझता है? क्या कोई यह जानने की कोशिश करता है कि वह व्यक्ति किन हालातों में जी रहा था, किस तरह के सामाजिक और आर्थिक दबाव से जूझ रहा था? गरीबी, बेरोजगारी, संसाधनों की कमी और अवसरों के अभाव के बीच पनपती आकांक्षा एक तलवार की धार पर चलने जैसी होती है। लेकिन जब वह किसी तरह उस धार को पार कर लेता है, तो उसके घावों की बात कोई नहीं करता। कोई यह नहीं पूछता कि उसने कितनी रातें भूखे पेट बिताई होंगी, कितनी बार आत्म-संदेह से जूझा होगा, और कितनी बार उसे अपने सपनों का गला घोंटना पड़ा होगा।
राजनीति की यह दोहरी भूमिका अत्यंत कष्टदायक है। जब किसी गरीब, पिछड़े या वंचित वर्ग के व्यक्ति की जरूरत होती है तो उसे वादों और आश्वासनों के झूठे पुलिंदों से बहलाया जाता है। और जब वही व्यक्ति किसी भी तरह अपनी मेहनत से कुछ कर दिखाता है, तो उसी व्यवस्था के लोग उसके सिर पर ताज रखने दौड़ पड़ते हैं। मीडिया से लेकर मंच तक, उसे एक प्रतीक बना दिया जाता है—लेकिन केवल एक सीमित समय के लिए, जब तक उससे राजनीतिक लाभ उठाया जा सके। उसके बाद वही व्यक्ति फिर अकेला, फिर उपेक्षित।
यह दोहरापन केवल नीतियों और राजनेताओं में नहीं है, बल्कि समाज की सोच में भी घर कर चुका है। जब कोई सफल होता है, तभी उसकी पहचान स्वीकार की जाती है। संघर्षशील व्यक्ति को अपनों के बीच भी पराया बना दिया जाता है। उसके फैसलों को मूर्खता कहा जाता है, उसकी महत्वाकांक्षाओं को पागलपन। लेकिन जैसे ही वह कुछ बड़ा हासिल करता है, सब उसी की प्रशंसा करने लगते हैं, जो कभी उसके मज़ाक उड़ाया करते थे।
यह सामाजिक पाखंड मन को गहरे आघात देता है। प्रश्न यह नहीं है कि कोई सफल हुआ या नहीं, बल्कि यह है कि सफलता तक पहुँचने के रास्ते में उसे कितनी बार गिराया गया, रोका गया, और फिर भी वह कैसे चलता रहा। हमारी व्यवस्था में ऐसा कोई तंत्र नहीं जो संघर्ष के समय किसी को पकड़ सके। प्रतिभा अगर सुविधाओं की मोहताज हो जाए, तो वह या तो मर जाती है या फिर गलत रास्तों की ओर बढ़ जाती है। इस देश की मिट्टी में इतनी ताकत है कि हर गली, हर गाँव से एक चैंपियन पैदा हो सकता है, लेकिन जब तक उसे समर्थन नहीं मिलेगा, तब तक वह या तो अंधेरे में गुम हो जाएगा या अपने भीतर की आग में जलता रहेगा। ऐसे में जब कोई युवा—चाहे वह खेल के क्षेत्र में हो, शिक्षा में हो, विज्ञान में या किसी और विधा में—अपनी जिद और जूनून से कुछ असाधारण कर दिखाता है, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह उसकी व्यक्तिगत जीत है। यह उसकी रातों की नींद, भूखे पेट की तपस्या और नफरतों के बीच पनपी आशा की परिणति है। इसे किसी झूठे नारे, राज्य विशेष की छवि या राजनीतिक प्रचार का हिस्सा बनाना, उस संघर्ष का अपमान है जो उसने चुपचाप सहा।
भारत में हर साल हजारों युवा केवल इसलिए हार जाते हैं क्योंकि उनके पास साधन नहीं हैं। न कोई मार्गदर्शक, न कोई मंच, और न ही कोई सुरक्षित भविष्य का भरोसा। उनकी हार को कोई नहीं गिनता। लेकिन जैसे ही कोई उनमें से एक चमकता है, तो सब उसी की ओर दौड़ पड़ते हैं, जैसे वही उनके विकास का प्रमाण हो। ये वही लोग होते हैं जो तब नजरअंदाज कर रहे थे जब वह व्यक्ति गुमनाम था।
यह प्रवृत्ति केवल अवसरवादिता को बढ़ावा देती है और समाज में एक विकृत आदर्श स्थापित करती है—कि जब तक तुम सफल नहीं हो, तब तक तुम किसी के नहीं हो।
इस लेख का उद्देश्य यह नहीं है कि किसी की सफलता को छोटा किया जाए, बल्कि यह स्पष्ट करना है कि उस सफलता के पीछे एक अदृश्य दुनिया होती है, जिसे कोई देखना नहीं चाहता। और जब उसे दिखाने की कोशिश की जाती है, तो उसे “नेगेटिव सोच” कहकर नकार दिया जाता है। लेकिन यह सत्य है कि यदि व्यवस्था समय रहते जागरूक न हो, यदि संसाधनों का न्यायसंगत वितरण न हो, और अगर संघर्षशील युवाओं को वास्तविक समर्थन न मिले, तो प्रतिभाएं या तो पलायन करेंगी या दम तोड़ देंगी। समाज और सत्ता दोनों को यह समझना होगा कि किसी व्यक्ति की सफलता का सबसे बड़ा योगदान खुद उस व्यक्ति का होता है। हाँ, प्रेरणा देने वाले, समर्थन देने वाले और साथ खड़े रहने वाले लोगों की भूमिका भी अहम होती है, लेकिन यह भूमिका सच्ची तभी होती है जब वह संघर्ष के समय निभाई जाए, न कि सफलता मिलने के बाद। किसी की जीत को अपने झंडे तले लपेटना एक तरह का राजनीतिक शोषण है, जो केवल वोट बैंक की भूख को शांत करने के लिए किया जाता है।
हमें एक ऐसा समाज चाहिए जहाँ किसी को अपनी प्रतिभा साबित करने के लिए भूखे पेट और अकेलेपन से न गुजरना पड़े। जहाँ अवसर का आधार योग्यता हो, न कि जाति, क्षेत्र या संपर्क। और जहाँ सफलता पर जश्न मनाने वाले वे हों, जिन्होंने असफलता के समय भी उसका साथ दिया हो। जब तक यह नहीं होगा, तब तक हर सफलता एक अधूरी कहानी रहेगी—जिसमें संघर्ष का श्रेय किसी और को मिल जाएगा और संघर्ष करने वाला फिर से अकेला रह जाएगा, किसी नए युद्ध के लिए।
यूपी के पहले अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला लखनऊ पहुंचे, राज्यभर में उत्सव जैसा माहौल
