प्रशांत कटियार
अमेरिका मूलतः सीमित संख्या में मूल अमेरिकी नागरिकों का देश है, लेकिन आज इसकी असली ताकत वहां बसे प्रवासी समुदायों में झलकती है। भारत, चीन, ब्राज़ील जैसे देशों से आए करोड़ों लोग वहां नागरिकता लेकर नई पीढ़ियों तक जड़ें जमा चुके हैं। हालांकि अपनी मातृभूमि से भावनात्मक नाता पूरी तरह कभी खत्म नहीं होता। यही कारण है कि भारतीय मूल की कमला हैरिस, ब्रिटेन के ऋषि सुनक या गूगल के सुंदर पिचाई जैसी हस्तियों को देख भारतीय आज भी आत्मीयता महसूस करते हैं।
आज अमेरिका के राष्ट्रपति रहे डोनाल्ड ट्रंप “टैरिफ” (आयात शुल्क) के हथियार से अमेरिका को फिर से महान बनाने की कोशिश में हैं। लेकिन सवाल यह है कि इसका असर वहां बसे प्रवासी समुदायों पर क्या होगा? खासकर भारतीय, चीनी और ब्राज़ीलियाई मूल के वे लोग, जो अब अमेरिकी नागरिक बन चुके हैं।
इतिहास गवाही देता है कि आयात शुल्क का बोझ अंततः उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है।
2018 की टैरिफ नीतियों के समय यह देखा गया कि वॉशिंग मशीन पर शुल्क लगते ही दुकानों में उनकी कीमत औसतन 12% तक बढ़ गई। यही नहीं, विकल्प कम हो गए और उपभोक्ताओं की वास्तविक आय घटी।
नतीजा जेब खाली, बाजार में महंगाई और अंततः किसान और उद्योग को निर्यात में नुकसान।
हाल ही में चीन से आने वाले इलेक्ट्रिक वाहन, बैटरियां, सोलर सेल, स्टील, एल्युमिनियम और मेडिकल उपकरणों पर भारी शुल्क लगाकर टैरिफ दर 1930 के दशक के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है। इसका मतलब है – कमी और महंगाई साथ-साथ बढ़ेगी।
पिछले टकराव में अमेरिकी कृषि निर्यात को 27 अरब डॉलर का नुकसान हुआ था। किसानों की आय 10-20% तक घटी और कई विदेशी बाजार हमेशा के लिए छिन गए।
अमेरिका में लगभग 55 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। वे उच्च आय, तकनीकी दक्षता और उद्यमशीलता के लिए जाने जाते हैं। राजनीति में भी इस समुदाय का प्रभाव है – यही वजह थी कि ट्रंप ने “हाउडी मोदी” जैसे कार्यक्रम आयोजित किए।
भारतीय-अमेरिकी उद्यमी नए सप्लाई चैनल बनाने, उत्पाद डिज़ाइन बदलकर आयात पर निर्भरता घटाने और भारत, वियतनाम या मेक्सिको जैसे देशों से वैकल्पिक आपूर्ति सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
चीनी मूल के लगभग 40-50 लाख अमेरिकी नागरिक वैज्ञानिक, मेडिकल, लॉजिस्टिक्स और व्यापारिक क्षेत्रों में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। वे डेटा और नीति संवाद के जरिए विकल्प तलाशने में मददगार हो सकते हैं। हालांकि भू-राजनीतिक तनाव में उनके लिए संदेह का माहौल एक चुनौती है।
ब्राज़ील मूल के अमेरिकी अपेक्षाकृत कम (लगभग 5 लाख) हैं, मगर कृषि, खाद्य प्रसंस्करण और ई-कॉमर्स जैसे क्षेत्रों में वे महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। दक्षिण अमेरिकी सप्लाई चेन बनाए रखने में यह समुदाय निर्णायक हो सकता है।
स्पष्ट है कि टैरिफ का असर अंततः उपभोक्ता की जेब, घरेलू कीमतों और निर्यात बाजार पर पड़ता है। जवाबी टैरिफ से अमेरिकी किसान और उद्योग दोनों को चोट लगती है, और अंततः करदाता को राहत पैकेज का बोझ उठाना पड़ता है।
ऐसे में भारतीय, चीनी और ब्राज़ीलियाई मूल के अमेरिकी नागरिक तीन स्तरों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं,
प्रवासी समुदायों का ज्ञान, नेटवर्क और अनुभव इस चुनौती को अवसर में बदल सकता है। असली सवाल यह नहीं है कि टैरिफ रहेंगे या नहीं, बल्कि यह है कि उन्हें कितनी समझदारी से साधा जाएगा ताकि अमेरिकी जनता पर अनावश्यक बोझ न पड़े।
ट्रंप टैरिफ और प्रवासी भारतीयों नागरिकों की भूमिका
