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Sunday, June 1, 2025

“मूल्यांकन का समय: इंटर्न डॉक्टरों की मांगें और सरकार की ज़िम्मेदारी”

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शरद कटियार

भारत (India) की स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले डॉक्टरों के प्रशिक्षण की अंतिम कड़ी होती है – इंटर्नशिप। यह वह समय होता है जब एक एमबीबीएस छात्र (MBBS student) चिकित्सा विज्ञान (medical science) के सैद्धांतिक ज्ञान को व्यवहार में उतारता है, जीवन-मरण से जुड़ी चुनौतियों का प्रत्यक्ष सामना करता है और अपने कौशल को मरीजों की सेवा में झोंक देता है। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में, जहां चिकित्सा सुविधाओं का दबाव पहले से ही अत्यधिक है, वहां इंटर्न डॉक्टरों की भूमिका और भी अहम हो जाती है। ऐसे में यदि उन्हें उचित पारिश्रमिक न मिले, तो यह न केवल उनके आत्मसम्मान पर चोट है, बल्कि एक असंवेदनशील प्रणाली की गवाही भी है।

उत्तर प्रदेश के इंटर्न डॉक्टरों ने हाल ही में अपने मानदेय में वृद्धि की मांग को लेकर आवाज बुलंद की है। केजीएमयू, लोहिया संस्थान, सैफई विश्वविद्यालय, जिम्स ग्रेटर नोएडा समेत राज्य के कई संस्थानों के इंटर्न डॉक्टरों ने स्वास्थ्य मंत्री को पत्र लिखते हुए अपने हालात का जिक्र किया है। यह पत्र सिर्फ आर्थिक मांग नहीं है, यह उस भावनात्मक और सामाजिक संघर्ष का दस्तावेज़ है, जिसे ये नवयुवक डॉक्टर झेल रहे हैं।

वर्तमान परिदृश्य:

वर्तमान में उत्तर प्रदेश में इंटर्न डॉक्टरों को मात्र 12,000 रुपये प्रतिमाह मानदेय दिया जा रहा है। यह राशि न केवल अपर्याप्त है, बल्कि अन्य राज्यों की तुलना में भी बहुत कम है। ऐसे में यूपी का 12,000 रुपये का आंकड़ा बेहद अपमानजनक प्रतीत होता है, विशेषकर तब जब इन्हीं डॉक्टरों से 24×7 सेवाएं ली जा रही हों – ओपीडी, ऑपरेशन थियेटर, आईसीयू, इमरजेंसी, लेबर रूम और ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में। इंटर्न डॉक्टर न केवल मरीजों के इलाज में मदद करते हैं, बल्कि कई बार डॉक्टरों की अनुपस्थिति में प्राथमिक उपचार का जिम्मा भी उठाते हैं। फिर भी, उन्हें न्यूनतम पारिश्रमिक तक नहीं दिया जाना प्रशासनिक असंवेदनशीलता का उदाहरण है।

आज के समय में 12,000 रुपये में एक युवा डॉक्टर कैसे अपना जीवन यापन करे – यह एक यक्ष प्रश्न है। मेडिकल इंटर्न के सामने निम्नलिखित खर्चे अनिवार्य हैं: मेडिकल कॉलेजों के अधिकांश छात्र छात्राएं अपने घरों से दूर रहते हैं। हॉस्टल शुल्क, मेस खर्च, या किराए के कमरों का भाड़ा उन्हें खुद ही उठाना होता है। अस्पताल और हॉस्टल के बीच दूरी, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में, परिवहन लागत को बढ़ाती है। अधिकांश इंटर्न डॉक्टर पोस्ट-ग्रेजुएशन (PG) की तैयारी कर रहे होते हैं, जिसके लिए कोचिंग संस्थानों की फीस और परीक्षा शुल्क वहन करना पड़ता है।यह जीवन का वह दौर होता है जब परिवार भी अपेक्षाएं रखता है।

यदि युवा को किसी आकस्मिक परिस्थिति में पैसा चाहिए, तो वर्तमान मानदेय किसी प्रकार की आपात स्थिति में सहायक नहीं होता। आर्थिक तंगी केवल जेब खाली नहीं करती, आत्मबल भी तोड़ देती है। यह डॉक्टर जब ऑपरेशन थियेटर में एक वरिष्ठ सर्जन की मदद कर रहे होते हैं, ICU में मरीजों की जान बचा रहे होते हैं या ग्रामीण क्षेत्र में एकमात्र उपलब्ध चिकित्सा सहयोगी बनते हैं, तब उनकी पीठ थपथपाने के बजाय उन्हें उपेक्षा की चादर ओढ़ा दी जाती है।

मानदेय की यह स्थिति न केवल उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती है। सामाजिक मंचों पर अक्सर ‘डॉक्टर को भगवान का दर्जा’ दिया जाता है, लेकिन वही डॉक्टर जब अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए सरकार से गुहार लगाए, तो यह समाज की दोहरी मानसिकता को भी उजागर करता है।

उत्तर प्रदेश सरकार, विशेषकर उपमुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री बृजेश पाठक, स्वास्थ्य सेवाओं के आधुनिकीकरण और विस्तार की बातें बार-बार करते हैं। लेकिन जब इन सेवाओं की नींव रखने वाले इंटर्न डॉक्टरों को पर्याप्त मानदेय नहीं दिया जाता, तो यह नीति और नीयत के बीच के अंतर को दर्शाता है।

वित्तीय संसाधनों की बात करना एक सामान्य बहाना बन गया है। जब सरकारें अन्य राज्य योजनाओं पर करोड़ों खर्च कर सकती हैं, इवेंट्स और प्रचार पर अरबों रुपये बहा सकती हैं, तब इन युवाओं की वाजिब मांगों को नज़रअंदाज़ करना पूरी तरह से अनुचित है।

यदि इंटर्न डॉक्टरों की मांगों को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो आने वाले समय में कई गंभीर स्थितियों से जूझना पड़ सकता है: इंटर्न डॉक्टरों के आंदोलन का सीधा असर स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ेगा, विशेषकर ग्रामीण व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर।उत्तर प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों की छवि राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित होगी। छात्र दूसरे राज्यों के मेडिकल कॉलेजों को प्राथमिकता देने लगेंगे।

प्रतिभाशाली डॉक्टर अपनी सेवाएं उन राज्यों या संस्थानों में देना पसंद करेंगे जहां उन्हें पेशेवर सम्मान और वित्तीय सुरक्षा मिले।कर्नाटक, असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने न केवल इंटर्न डॉक्टरों का मानदेय बढ़ाया है, बल्कि उन्हें समय-समय पर आवश्यक सुविधाएं भी दी हैं। वहां की सरकारों ने यह समझा है कि डॉक्टरों में निवेश, स्वास्थ्य व्यवस्था में दीर्घकालिक सुधार लाता है। यूपी को भी यह सीखना होगा।

यह समय है कि केंद्र सरकार इस विषय पर राष्ट्रीय मानक तय करे। भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में चिकित्सा शिक्षा और प्रशिक्षण की समानता आवश्यक है। इंटर्नशिप मानदेय के लिए न्यूनतम राष्ट्रीय मानक निर्धारित करने की जरूरत है ताकि सभी राज्यों में इंटर्न डॉक्टरों को एक समान पारिश्रमिक और सम्मान मिले। इंटर्न डॉक्टरों की यह मांग केवल पैसे की नहीं है, यह सम्मान, न्याय और मानवीय गरिमा की मांग है। यह युवा डॉक्टर हमारे स्वास्थ्य भविष्य की बुनियाद हैं। उन्हें मजबूत बनाना, उनका मनोबल बढ़ाना और उनके श्रम का समुचित मूल्य देना सरकार का कर्तव्य है।

स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री से यह अपेक्षा है कि वे इस विषय को संवेदनशीलता से लें, महज़ तकनीकी और वित्तीय दृष्टिकोण से नहीं। इन डॉक्टरों की आवाज़ को आंदोलन बनने से पहले सुना जाए, क्योंकि यदि इनकी सेवा भावना टूट गई तो आने वाले समय में स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ दरक जाएगी। उत्तर प्रदेश की सरकार के पास अभी भी समय है – वो इस मांग को अवसर में बदले, और यह साबित करे कि वह अपने स्वास्थ्य सेवकों के साथ है, केवल भाषणों में नहीं, बल्कि नीतियों में भी।

शरद कटियार

प्रधान संपादक, दैनिक यूथ इंडिया

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