प्रशांत कटियार
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में थाने को जनता (public) की न्याय यात्रा का पहला पड़ाव माना जाना चाहिए था, लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। आज भी आम आदमी के दिल में पुलिस थाने (police station) का नाम सुनते ही एक भय समा जाता है। वह जगह जो सुरक्षा, न्याय और भरोसे की प्रतीक होनी चाहिए, वह कई जगहों पर भ्रष्टाचार, सत्ता के दवाब और जातिगत भेदभाव की प्रयोगशाला बन चुकी है।थाने में पहुंचने वाला आम आदमी अक्सर इस बात से जूझता है कि उसकी फरियाद पहले नहीं, बल्कि उसकी जाति, आर्थिक स्थिति या राजनीतिक पहचान पहले देखी जाती है।
एफआईआर दर्ज कराना हो या मामूली शिकायत पर कार्रवाई करवाना, हर जगह या तो पैसा चलता है या सत्ता की सिफारिश। ऐसे में पीड़ित चक्कर लगाता रह जाता है और अपराधी सत्ता व पुलिस गठजोड़ से बेखौफ घूमता है।इस त्रासदी की सबसे बड़ी जड़ है थानेदारों की भ्रष्ट और पक्षपातपूर्ण नियुक्तियां। थाने का थानेदार ही किसी क्षेत्र की कानून व्यवस्था का सबसे प्रभावशाली चेहरा होता है। अगर वह ईमानदार, संवेदनशील और निष्पक्ष हो, तो ना सिर्फ अपराधियों पर नकेल कसी जा सकती है, बल्कि पीड़ितों को त्वरित न्याय भी मिल सकता है।
लेकिन जब थानेदार पद पर राजनीतिक चापलूस या पैसे देकर बैठे व्यक्ति को बैठा दिया जाता है, तो वही थाना जनसेवा केंद्र नहीं, बल्कि एक उगाही अड्डा बन जाता है।ईमानदार थानेदार की उपस्थिति ही अपराधियों के लिए सजा बन जाती है।ईमानदार थानेदार न सिर्फ जनता की बात गंभीरता से सुनता है, बल्कि सत्ता, जाति और पैसे के किसी भी दबाव के आगे नहीं झुकता। उसकी उपस्थिति खुद माफियाओं, गुंडों और सत्तासीन भ्रष्ट एजेंटों की नींद उड़ाने के लिए काफी होती है।
दिक्कत है उस प्रक्रिया में जिसमें थानेदारों की पोस्टिंग राजनीति की छाया में होती है। सत्ता में बैठे लोग चाहते हैं कि थानेदार उनके इशारों पर चले, विरोधियों को परेशान करे और उनके कार्यकर्ताओं को संरक्षण दे। जो ईमानदार है, वह या तो लाइन हाजिर हो जाता है या साइड पोस्टिंग झेलता है। वहीं सत्ता के तलवे चाटने वाले थानेदारों को शहर के महत्वपूर्ण थानों पर कुर्सी मिल जाती है।अब समय आ गया है कि इस पुरानी और सड़ी हुई व्यवस्था मे परिवर्तन किया जाए। थानेदारों की पोस्टिंग के लिए एक पारदर्शी प्रणाली लागू होनी चाहिए, जिसमें केवल सेवा रिकॉर्ड, जनभावनाओं के प्रति संवेदनशीलता, भ्रष्टाचार से दूरी और जनता से संवाद कौशल को मापदंड बनाया जाए।
इसके साथ साथ थानों की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र तंत्र भी जरूरी है, जिससे हर नागरिक को यह भरोसा हो कि उसका थाना उसका अपना है।योगी सरकार का प्रयास सराहनीय, लेकिन सुधार अभी अधूरा है उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पुलिस महकमे को काफी हद तक स्वतंत्रता दी है। पुलिस कप्तानों की पोस्टिंग अब काफी हद तक काबिलियत के आधार पर हो रही है। सूत्रों की मानें तो अब पुलिस कप्तान की नियुक्तियों में पैसे की भूमिका लगभग खत्म हो चुकी है।
साथ ही कप्तानों को अपने थानेदारों की गतिविधियों की पूरी जानकारी रहती है।लेकिन फिर भी कुछ पुराने घूसखोर, राजनीतिक सिफारिश या गुप्त संपर्कों के सहारे व्यवस्था में सेंध लगा लेते हैं। इन्हीं इक्का दुक्का मामलों से पूरी व्यवस्था पर सवाल उठने लगते हैं।अगर थानों में केवल ईमानदार और संवेदनशील थानेदारों की नियुक्ति सुनिश्चित कर दी जाए, तो न केवल अपराधियों का मनोबल टूटेगा बल्कि जनता का न्यायपालिका और प्रशासन पर भरोसा भी लौटेगा।
अदालतों के बोझ को भी इससे काफी हद तक कम किया जा सकता है, क्योंकि थाना ही आम आदमी की पहली उम्मीद और अंतिम आसरा है। लेकिन सबसे अहम सवाल अब भी बाकी है क्या सत्ता सच में यह बदलाव चाहती है या उसे भी इस गंदे खेल की आदत पड़ चुकी है। इस सवाल का जवाब हर पीड़ित की आंखों से टपकता है, हर गली के मोड़ पर घूमता है और हर थाने के गेट पर खड़ी उम्मीद को ताकता है। अगर थानेदार ईमानदार हो जाए, तो पूरा सिस्टम खुद सुधर जाएगा। यही वक्त की सबसे बड़ी पुकार है।