अजय कुमार, वरिष्ठ सम्पादक
देश के छोटे और मझोले व्यापारियों की हालत इन दिनों चिंताजनक होती जा रही है। जहाँ सरकार और बड़े कॉर्पोरेट सेक्टर आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों का उत्सव मना रहे हैं, वहीं ज़मीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर पेश करती है। लाखों छोटे व्यापारी रोज़ाना अपने व्यापार (business) को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं, और इसके पीछे केवल आर्थिक कारण नहीं, बल्कि व्यवस्थागत जटिलताएं और नीति-निर्माण की खामियां भी जिम्मेदार हैं।
सबसे बड़ी समस्या ग्राहकों की कमी की है। महंगाई ने आम उपभोक्ताओं की जेब पर असर डाला है, जिसके कारण खरीदारी की प्रवृत्ति में भारी गिरावट आई है। गाँवों और कस्बों में तो स्थिति और भी विकट है, जहाँ आमदनी सीमित है और रोजमर्रा की आवश्यकताएं भी कठिन हो गई हैं। कई दुकानदार कहते हैं कि पहले जहां दिनभर में 25-30 ग्राहक आते थे, अब केवल 4-5 ही आ रहे हैं। वहीं दुकान का किराया, बिजली बिल और स्टाफ की सैलरी जैसी लागतें जस की तस बनी हुई हैं, जिससे व्यापारियों का मुनाफा लगभग समाप्त हो चुका है।
दूसरी बड़ी चुनौती जटिल कर प्रणाली की है। जीएसटी के तहत रिटर्न दाखिल करना, ई-इनवॉइस, ई-वे बिल जैसी प्रक्रियाएं छोटे व्यापारियों के लिए अत्यंत जटिल हो चुकी हैं। अधिकांश व्यापारियों को अब कामकाज चलाने के लिए एकाउंटेंट और जीएसटी विशेषज्ञों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे उनका खर्च और बढ़ गया है। छोटी-छोटी त्रुटियों पर भारी जुर्माने और नोटिस मिलने की आशंका हर व्यापारी को सताती रहती है।
तीसरा बड़ा संकट ऑनलाइन बाजार का है। अमेजन, फ्लिपकार्ट, मीशो जैसे प्लेटफॉर्म पर सामान सस्ते दामों पर उपलब्ध है। ग्राहक पहले स्थानीय दुकानों पर आकर जानकारी लेते हैं, फिर वहीं से ऑनलाइन ऑर्डर कर देते हैं। छोटे दुकानदारों का कहना है कि वे 5-10 प्रतिशत के बेहद सीमित मार्जिन पर काम करते हैं, ऐसे में ऑनलाइन की कीमतों से मुकाबला करना असंभव हो जाता है। एक मोबाइल विक्रेता ने बताया कि अब उनकी दुकान महज एक डिस्प्ले सेंटर बनकर रह गई है, जहां ग्राहक केवल जानकारी लेने आते हैं।
इसके साथ ही व्यापार की लागत दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। दुकान का किराया, बिजली, कर्मचारी वेतन, लाइसेंस और टैक्स – सभी मदों में खर्चा बढ़ता जा रहा है। परंतु आमदनी का ग्राफ लगातार नीचे गिर रहा है। सरकार द्वारा घोषित व्यापारिक योजनाएं, लोन और सब्सिडी जैसी घोषणाएं व्यवहारिक धरातल पर उतर ही नहीं पातीं। अधिकांश योजनाएं केवल कागजों तक सीमित रह जाती हैं, या फिर उनका लाभ केवल बड़े उद्योगों को ही मिलता है।
देश के परंपरागत व्यापार जैसे सुनारी, सर्राफा, कपड़ा, किराना, मोबाइल और हार्डवेयर आदि व्यवसाय इस दबाव में सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं। सुनारों की पूंजी फंसी हुई है, कपड़े की दुकानों में सेल के बावजूद ग्राहक नहीं आ रहे, मोबाइल शॉप पर लोग पूछताछ तो करते हैं पर खरीदारी नहीं करते, किराना व्यापारी डीमार्ट और बिगबास्केट जैसे बड़े प्लेटफॉर्म से टक्कर नहीं ले पा रहे, और हार्डवेयर के व्यापारी बिलिंग व जीएसटी की जटिलताओं से जूझ रहे हैं।
हाल ही में आए एक सर्वे में 65 प्रतिशत छोटे व्यापारियों ने बताया कि उनकी बिक्री बीते दो वर्षों में घटी है। वहीं 72 प्रतिशत व्यापारियों ने कहा कि सरकार की नीतियां मुख्यतः बड़े उद्योगों को लाभ पहुंचाने वाली हैं, न कि छोटे और खुदरा कारोबारियों को। कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (CAIT) और लघु उद्योग भारती जैसे संगठन लगातार यह आवाज़ उठा रहे हैं कि सरकार को व्यापारियों की वास्तविक ज़रूरतों और चुनौतियों को समझना चाहिए, न कि केवल डिजिटल इंडिया और ई-कॉमर्स के उत्सव में डूबे रहना चाहिए।
आज आवश्यकता है कि नीति-निर्माता जमीनी व्यापार की वास्तविकताओं को समझें। टैक्स प्रणाली को सरल बनाया जाए, ऑनलाइन और ऑफलाइन बाजार के बीच संतुलन सुनिश्चित हो, और छोटे व्यापारियों को तकनीकी व वित्तीय सहयोग ईमानदारी से उपलब्ध कराया जाए। देश की अर्थव्यवस्था तब तक संपूर्ण रूप से आगे नहीं बढ़ सकती जब तक उसके सबसे बुनियादी स्तंभ – छोटे दुकानदार, स्थानीय व्यापारी और परंपरागत व्यवसाय – खुद को सुरक्षित और सशक्त महसूस न करें।