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Tuesday, July 22, 2025

लोकतंत्र की गरिमा और ज़िम्मेदार राजनीति की दरकार

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शरद कटियार

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा दिए गए हालिया वक्तव्यों ने एक बार फिर राजनीतिक (politics) विमर्श को गर्मा दिया है। उन्होंने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली की सराहना करते हुए कहा कि “घुसपैठिया मतदाताओं के नाम हटाए जा रहे हैं”, और यह कार्यवाही लोकतंत्र (Democracy) को शुद्ध करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। लेकिन इसके साथ ही, उन्होंने विपक्ष पर तीखा हमला करते हुए कहा कि “जो विरोध कर रहे हैं, वे घुसपैठियों का स्वागत करने वाले लोग हैं।”

इस तरह के बयान एक ओर जहाँ सत्ता पक्ष की आक्रामक चुनावी रणनीति को दर्शाते हैं, वहीं दूसरी ओर यह चिंता भी उत्पन्न करते हैं कि क्या राजनीतिक असहमति को सीधे राष्ट्रविरोध या विधि-विरुद्ध गतिविधियों से जोड़ देना उचित है? लोकतंत्र में असहमति एक मूल्य है, न कि अपराध।

उपमुख्यमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि न्यायालय ने सरकार के फैसले को सही ठहराया है। यह संविधान सम्मत व्यवस्था की पुष्टि है, लेकिन इस संवैधानिक स्वीकृति को राजनीतिक लाभ के रूप में भुनाने की प्रवृत्ति से बचा जाना चाहिए।

जहाँ एक ओर उन्होंने समाजवादी पार्टी पर आरोप लगाया कि वह कांवड़ यात्रा जैसे धार्मिक आयोजनों में अशांति फैलाने वाले लोगों को भेजती है, वहीं बीजेपी द्वारा “कानून सम्मत कार्यवाही” करने की बात कही गई। यह आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चुनावी मौसम में आम है, लेकिन जब धार्मिक आयोजनों को भी राजनीतिक आरोपों की ज़द में लाया जाने लगे, तो यह चिंता का विषय बन जाता है। क्या धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में आस्था और राजनीति को इतना गड्डमड्ड किया जाना चाहिए?

“सपा का नारा है – जो जमीन सरकारी है वह हमारी है” जैसी टिप्पणियाँ निश्चित ही तीखी हैं, लेकिन क्या इससे जन-चेतना जागृत होगी या मतदाताओं के बीच और अधिक ध्रुवीकरण होगा? यह सोचने का समय है। बीजेपी का यह कहना कि “तुष्टिकरण करने वालों को कानून सम्मत कार्यवाही से दिक्कत होती है”, उनके कानून व्यवस्था को लेकर सख्त रुख को दर्शाता है, किंतु यह रुख तब तक ही सराहनीय है जब तक यह निष्पक्ष और राजनीति से परे हो।

राजनीतिक संवाद को गरिमा और विवेक की ज़रूरत है। लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने की मशीन नहीं, बल्कि यह विविध मतों, विचारों और संस्कृतियों का समावेश है। यदि हर असहमति को देशद्रोह, तुष्टिकरण या अराजकता का प्रतीक बना दिया जाएगा, तो लोकतंत्र की आत्मा को गहरा आघात पहुँचेगा। देश की सर्वोच्च अदालत ने जो टिप्पणी की है, वह सभी राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करने का अवसर देती है। आवश्यकता है कि मुद्दों पर आधारित संवाद हो, न कि घृणा और विभाजन की राजनीति। यही लोकतंत्र की सच्ची सेवा होगी।

शरद कटियार
ग्रुप एडिटर
यूथ इंडिया न्यूज ग्रुप

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