विजय गर्ग
फ्लैट संस्कृति ने दीवारें इतनी ऊंची कर दी हैं कि अब दिलों तक रिश्तों की धूप नहीं पहुंचती। बालकनी में अमेज़न से मंगाया हुआ आर्टिफिशियल बोनसाई पौधा। संवेदनायें वॉलपेपर पर लगी तस्वीर जैसी खूबसूरत पर नकली सी। दरवाजांे से वह आवाज़ आनी तो बंद हो गई जिसमें पड़ोसन कहा करती- बहनजी! एक कटोरी चीनी देना ज़रा। दरवाजे पर खड़े-खड़े घंटों संवाद हुआ करता पर अब वहां सन्नाटा है और एक वीडियो डोरबेल लगी है। पहले स्क्रीन पर चेहरा देखो, फिर तय करो कि मिलना है या न मिलने का बहाना बनाना है।
आंगन कभी घर का केंद्र हुआ करता, जहां दादी सुबह-सुबह तुलसी को पानी देती थीं, बच्चे धींगामस्ती करते थे और बिल्लियां दूध चुराने की कोशिश में रहती थीं। आंगन में कभी बच्चे रस्सी कूदते थे, अब फ्लैट में स्पीकर से म्यूजिक पर धमाल और नीचे वॉचमैन की शिकायत आती है- मैडम बच्चे को काबू करो। अब आंगन की जगह ‘लॉबी’ नाम का एरिया है जहां 55 इंच की एलईडी, जिसके चारों ओर पूरा परिवार एक दूसरे की पीठ देखता है… चेहरे नहीं। सब मोबाइल पर झुके हैं।
यह लॉबी फर्नीचर का शोरूम लगती है। वहां कांच की मेजें हैं जिस पर न बातचीत टिकती है न चाय के छींटे। अगर बच्चा जोर से हंस दे तो मां चुप कराती है, सोसायटी वाले क्या कहेंगे? वैसे भी अब समाज नहीं है, सोसायटी है। रिश्ते अब चाय से नहीं चार्जर से चलते हैं।
कभी नानी-दादी कहानियां सुनाती थीं अब नेटफ्लिक्स कहानी दिखाता है और वह भी ‘स्किप इंटरो’ के साथ। घराें में प्यार भले कम हो पर अगर इंटरनेट बंद हो जाये तो पूरा परिवार एकजुट होकर राउटर को गाली देता है। कुल सार यह है कि अब आंगन का सूरज एलईडी से चमकता है और रिश्ते वाई-फाई की ताकत पर टिके हैं। कभी घरों में ‘बाबा-दादी आ रहे हैं’ की खुशी होती थी पर अब कूरियर वाले को आता देख ज़्यादा खुशी होती है। पहले मोहल्ले-गलियों में दूध वाले और दर्जी तक का हिसाब मुंहजबानी चलता था पर अब तो हाथ की हाथ गूगल पे या पेटीएम होता है।
कभी घरों की खिड़कियां हवा के आने और दुनिया झांकने का जरिया होती थीं पर अब खिड़कियों पर मोटा पर्दा इतना कसकर जड़ा जाता है कि नज़ारा तो दूर हवा भी पासवर्ड मांगती है। नज़ारे अब स्क्रीन सेवर में हैं और हवा एयर प्यूरीफायर में।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब