जीरो टॉलरेंस के बलबूते सीएम योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता कायम
प्रशांत कटियार
उत्तर प्रदेश, जो न केवल देश की राजनीति की दिशा तय करता है, बल्कि दिल्ली की सत्ता की चाबी भी अपने पास रखता है, वहां भारतीय जनता पार्टी के सामने 2027 की राह इतनी सहज नहीं दिख रही। जातीय समीकरण, सामाजिक असंतुलन और आंतरिक कुंठाएं अब धीरे-धीरे सतह पर उभरने लगी हैं।
भाजपा पर लंबे समय से यह आरोप लगते रहे हैं कि वह सवर्णों को विशेष प्राथमिकता देती है। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव इसका प्रत्यक्ष प्रमाण रहे। भाजपा ने सर्वाधिक टिकट ब्राह्मण और ठाकुर समाज को दिए। 53 ब्राह्मण और 49 ठाकुर विधायक आज विधानसभा में भाजपा के दम पर विराजमान हैं। वहीं कुर्मी जाति, जो ओबीसी वर्ग से आती है, तीसरे स्थान पर है।इस वर्चस्व का सीधा प्रभाव यह हुआ कि योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल में 21 मंत्री सवर्ण समुदाय से हैं। जबकि 50% से अधिक ओबीसी जनसंख्या होने के बावजूद सिर्फ 19 ओबीसी नेताओं को मंत्रिपद दिया गया।
दलित समुदाय से मात्र 9 मंत्री हैं।और किसको कौन सा मंत्रालय मिला किसी से छिपा नहीं है, सबसे अहम बात यह है कि बीजेपी के कर्णधार रहे ओबीसी के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व राज्यपाल के पौत्र कैविनेट मे जगह नहीं बना पाए, और 7 बार के सांसद साक्षी महाराज आजतक मंत्री नहीं बन पाए, यह आंकड़ा खुद ही यह बताने के लिए काफी है कि सत्ता-संतुलन किस ओर झुका हुआ है।सिर्फ राजनीति ही नहीं, प्रशासनिक स्तर पर भी सवर्ण अधिकारियों का दबदबा साफ दिखता है। उत्तर प्रदेश के ज़िलों के डीएम, एसपी से लेकर सचिवालय और मुख्यालय स्तर तक प्रमुख पदों पर बड़ी संख्या में ब्राह्मण और ठाकुर अधिकारी तैनात हैं।
इस मुद्दे पर तब हलचल मच गई जब खुद राज्य के पुलिस महानिदेशक प्रशांत कुमार को प्रेस में सफाई देनी पड़ी कि हम जाति देखकर तैनाती नहीं करते यह बयान सरकार के भीतर जातीय असंतुलन की आलोचनाओं की गंभीरता को दर्शाता है।2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 75 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। इनमें से 34 प्रत्याशी सवर्ण वर्ग से थे,26 ओबीसी समुदाय से,और 16 अनुसूचित जाति वर्ग से।
लेकिन अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फार्मूले के तहत जातीय ध्रुवीकरण को कुशलता से साधा और कांग्रेस के साथ मिलकर दलित-ओबीसी के समर्थन से 43 सीटों पर जीत दर्ज कर ली।2019 में भाजपा ने जहां 62 सीटें जीती थीं, वहीं 2024 में यह आंकड़ा गंभीर गिरावट का शिकार हुआ, जो संकेत देता है कि जातीय उपेक्षा अब नुकसान में तब्दील हो रही है।भाजपा पर सवर्ण समर्थक शासन शैली का आरोप सिर्फ टिकट बंटवारे तक सीमित नहीं है, बल्कि सत्ता के व्यवहार में भी यह परिलक्षित होता है।लखीमपुर खीरी में एक ओबीसी भाजपा विधायक की सार्वजनिक पिटाई।दलित राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन पर जानलेवा हमला।किसान नेता राकेश टिकैत का सार्वजनिक अपमान।फर्रुखाबाद में बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष जवाहर सिंह गंगवार को गालियां और धमकी।इन घटनाओं ने भाजपा की कानून व्यवस्था और सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।भाजपा को यदि 2027 में यूपी फतह करनी है, तो उसे सामाजिक न्याय, जातीय संतुलन और सम्मान की राजनीति को प्राथमिकता देनी होगी।
प्रशासन से लेकर राजनीति तक का एकतरफा झुकाव, दलित और ओबीसी मतदाताओं को भीतर ही भीतर आहत कर रहा है।सत्ता में भागीदारी और सम्मान अब सिर्फ चुनावी नारों से नहीं, ठोस कार्यों से अर्जित होगा।जनता अब आंकड़े समझने लगी है, और सत्ता के चरित्र को पहचानने भी।
2027 दूर नहीं… चेतने की ज़रूरत है।
लेखक दैनिक यूथ इंडिया के स्टेट हेड है।