शरद कटियार
“द आर्ट ऑफ़ सेइंग नो” (The Art of Saying No) एक महत्वपूर्ण कौशल है, जो न केवल हमारे समय और ऊर्जा को बचाने में मदद करता है, बल्कि मानसिक शांति और आत्म-सम्मान को भी बनाए रखता है। यह कला व्यक्तिगत, पेशेवर और सामाजिक जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है।
ना कहने की जरूरत क्यों? हर अनुरोध को स्वीकार करने से हम अपनी प्राथमिकताओं को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। बिना सोचे-समझे “हाँ” कहने से काम का बोझ बढ़ जाता है, जिससे तनाव होता है।जबरदस्ती कोई काम करने से मन में असंतोष रहता है, जिससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
सही समय पर “ना” कहने से हम अपने संसाधनों का सही उपयोग कर सकते हैं।असमंजस में न रहें, अपनी बात साफ़ और दृढ़ता से कहें। “ना” कहना गलत नहीं है, इसलिए अपराधबोध महसूस न करें। कठोरता के बजाय सम्मानजनक और सहानुभूतिपूर्ण भाषा का प्रयोग करें। यदि संभव हो तो सामने वाले को कोई अन्य विकल्प दें, जिससे वे निराश न महसूस करें।
सीमाएं तय करें –
अपने समय और क्षमताओं की सीमाएं तय करें और दूसरों को भी उनका सम्मान करने दें।
सीधा और स्पष्ट: “मुझे खेद है, लेकिन मैं यह नहीं कर सकता।” “मैं आपकी बात समझता हूँ, लेकिन मेरे पास अभी समय नहीं है।” “अभी मैं मदद नहीं कर सकता, लेकिन शायद अगले हफ्ते मैं देख सकूं।” “मैं यह नहीं कर सकता, लेकिन आप [किसी अन्य व्यक्ति] से पूछ सकते हैं।”
“ना” कहना कोई नकारात्मक चीज़ नहीं है, बल्कि यह आत्म-सम्मान और समय प्रबंधन का हिस्सा है। यह हमें जीवन में अधिक स्वतंत्रता और शांति देता है। सही तरीके से “ना” कहना सीखकर हम अपने जीवन में अधिक संतुलन और खुशी ला सकते हैं।