प्रशांत कटियार
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 और उसका 2010 में लागू होना, भारतीय शिक्षा व्यवस्था (education system) में मील का पत्थर था। उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे 2011 से लागू किया और इसके साथ ही कक्षा 1 से 8 तक की नियुक्तियों में शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) को अनिवार्य (Compulsory) शर्त बना दिया। उस समय तक 2010 से पहले नियुक्त शिक्षकों को छूट मिली हुई थी। लेकिन हालिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने तस्वीर पूरी तरह बदल दी है। अदालत ने साफ कह दिया है कि अब 2011 से पहले चयनित सभी शिक्षकों को भी टीईटी पास करना होगा।यह आदेश जितना कड़ा है, उतना ही विवादित भी। जिन शिक्षकों ने दस-दस साल की सेवा में बच्चों को पढ़ाने का अनुभव अर्जित किया है, उन्हें अचानक कटघरे में खड़ा कर देना कहीं से भी न्यायपूर्ण नहीं लगता।
क्या वर्षों का अनुभव और कक्षा कक्ष में निरंतर योगदान एक परीक्षा की कसौटी से छोटा है। क्या यह फैसला उन शिक्षकों के आत्मसम्मान पर चोट नहीं, जिन्होंने बिना टीईटी के भी पीढ़ियाँ गढ़ी हैं। लेकिन दूसरी ओर सच्चाई यह भी है कि गुणवत्ता शिक्षा का सवाल अब अनदेखा नहीं किया जा सकता। टीईटी जैसी परीक्षा यह सुनिश्चित करने का एक जरिया है कि शिक्षक केवल नौकरी के नाम पर कक्षा में न बैठें, बल्कि न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता और ज्ञान का स्तर भी बनाए रखें। अदालत का तर्क है कि बच्चों की नींव कमजोर नहीं होनी चाहिए, और इसके लिए कठोर मानक जरूरी हैं।इस बीच, शिक्षक संगठनों की कारगुज़ारियाँ इस पूरे मामले को और भी बदनाम कर रही हैं।
पुनर्विचार याचिका के नाम पर हर शिक्षक से 500 रुपये वसूले जा रहे हैं। लाखों रुपये का यह चंदा कहाँ जा रहा है, इसका कोई हिसाब नहीं। सवाल उठता है क्या शिक्षक नेताओं का मकसद वास्तव में न्याय की लड़ाई लड़ना है, या फिर अपने खजाने भरना। शिक्षक पहले से ही असुरक्षा और दबाव में हैं, ऊपर से उनके नाम पर लूटखसोट करना किसी धोखाधड़ी से कम नहीं।
हालात यह हैं कि बड़ी संख्या में शिक्षक अब मान चुके हैं कि विरोध प्रदर्शन और ज्ञापन से कुछ हासिल नहीं होगा। व्हाट्सएप ग्रुपों पर सिलेबस घूम रहा है, कोचिंग सेंटर सक्रिय हो गए हैं, और शिक्षक किताबों में सिर झुकाकर तैयारी करने में जुट गए हैं। शासन ने भी जनवरी 29 और 30 को परीक्षा की तिथियाँ प्रस्तावित कर दी हैं। यानी वक्त बहुत कम है और चुनौती बहुत बड़ी।यहाँ सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में वर्षों की सेवा और अनुभव को नकार दिया।
या फिर यह निर्णय बच्चों की शिक्षा और देश के भविष्य की गुणवत्ता सुधारने का साहसी कदम है।सच्चाई यही है कि यह फैसला दो धार वाली तलवार है। एक तरफ यह शिक्षा की गुणवत्ता को मजबूती देने का दावा करता है, दूसरी ओर हजारों शिक्षकों की नौकरी पर तलवार लटका देता है।अब ज़िम्मेदारी दोनों की है शिक्षकों की, कि वे हकीकत को समझें और तैयारी में जुट जाएँ। सरकार की, कि वह अनुभव और योग्यता के बीच संतुलन बनाए, ताकि वर्षों से सेवा दे रहे शिक्षकों के साथ अन्याय न हो।कठोर शब्दों में कहें तो, आज की स्थिति शिक्षा सुधार की आड़ में शिक्षकों के शोषण जैसी दिख रही है। अगर समय रहते पारदर्शी और संवेदनशील समाधान नहीं निकाला गया, तो इसका खामियाज़ा केवल शिक्षक ही नहीं, बच्चे और पूरा समाज भुगतेगा।