शरद कटियार
“जो अपने देश के लिए जिए, देश के लिए सहे और देश के लिए ही मरे — वही होता है सच्चा स्वातंत्र्यवीर।”
आज हम उस महापुरुष की जयंती मना रहे हैं, जिनकी कलम में क्रांति थी, विचारों में आग थी और जीवन में केवल राष्ट्र था — स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जी। उनका जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुआ था। भारतमाता के इस सपूत ने न केवल अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लोहा लिया, बल्कि अपनी लेखनी से भी युवाओं में राष्ट्रभक्ति की लौ जगाई।
सावरकर जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे लेखक, कवि, इतिहासकार, विचारक और क्रांतिकारी नेता थे। उन्होंने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ जैसी ऐतिहासिक कृति लिखी, जिसमें उन्होंने 1857 की क्रांति को देश की पहली स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया। यह पुस्तक ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दी थी, क्योंकि इसमें आज़ादी की चिंगारी थी।
सावरकर जी की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए उन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने काले पानी की सज़ा दी और अंडमान के सेलुलर जेल में वर्षों तक कठोर यातनाएं दी गईं। लेकिन उन यातनाओं ने उनकी आत्मा को नहीं तोड़ा। उन्होंने जेल में भी लेखन और विचारों के माध्यम से क्रांति की अलख जलाए रखी।
सावरकर जी ने ‘हिंदुत्व’ की परिकल्पना को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़ा। उनके विचारों में संप्रदाय नहीं, बल्कि एक ऐसी संस्कृति थी जो पूरे भारत को जोड़ती थी। उनके लिए धर्म से बढ़कर राष्ट्र था।
आज जब हम आज़ाद भारत में सांस ले रहे हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आज़ादी सावरकर जैसे राष्ट्रनायकों के संघर्ष और बलिदान की ही देन है। उनका जीवन आज की पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा है — कि सच्चा देशप्रेम केवल नारे लगाने से नहीं, बल्कि त्याग और कर्म से सिद्ध होता है।
स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जी की जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन।
आपका जीवन और विचार युगों-युगों तक भारत के युवाओं को राष्ट्र सेवा के पथ पर प्रेरित करते रहेंगे।