जब किसी देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों की शिक्षा जान जोखिम में डालकर हो रही हो, तो यह सवाल उठाना लाज़मी है — क्या हम बच्चों को शिक्षा देने या हादसों की ओर धकेलने की व्यवस्था चला रहे हैं? उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जनपद अंतर्गत शमसाबाद ब्लॉक के गांव बघऊ स्थित प्राथमिक विद्यालय में हुई छत गिरने की घटना ने एक बार फिर सरकारी विद्यालयों की बदहाली, लापरवाही और प्रशासनिक उदासीनता को उजागर कर दिया है।
शनिवार दोपहर करीब 12:30 बजे जब कक्षा 1 और कक्षा 4 के बच्चे बरामदे में पढ़ाई कर रहे थे, तभी अचानक छत से प्लास्टर भरभरा कर गिर पड़ा। सौभाग्यवश किसी छात्र को गंभीर चोट नहीं आई, लेकिन यदि इस घटना में जान-माल की हानि होती, तो क्या हम सिर्फ मुआवज़े और जांच के भरोसे रह जाते?
यह कोई पहली घटना नहीं है। देशभर के सरकारी स्कूलों में भवनों की जर्जर हालत, संसाधनों की कमी, और जवाबदेही की अनुपस्थिति लंबे समय से चिंता का विषय रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि इसे सिर्फ “स्थानीय घटना” न समझा जाए, बल्कि यह सवाल राष्ट्रीय प्राथमिकता की बहस में शामिल हो।
भारत में सरकारी स्कूलों की एक बड़ी संख्या ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में स्थित है, जहाँ भवनों की दशा बेहद चिंताजनक है। बघऊ गांव की यह घटना दिखाती है कि वर्षों से मरम्मत न होने के कारण दीवारों की दरारें, टपकती छतें और जर्जर प्लास्टर बच्चों की सुरक्षा को खुलेआम चुनौती दे रहे हैं।
सरकारी रिपोर्ट्स और यूनिसेफ जैसी संस्थाओं की रिसर्च भी इस ओर इशारा करती हैं कि भारत में लाखों बच्चों की पढ़ाई जर्जर भवनों, असुरक्षित कक्षों और गैर-मानवीय परिस्थितियों में हो रही है। जब शिक्षा का अधिकार (Right to Education) संविधान द्वारा सुनिश्चित किया गया है, तो क्या उसमें सुरक्षा और सम्मानजनक वातावरण भी नहीं जुड़ा होना चाहिए?
भारत सरकार की कई योजनाएँ — सर्व शिक्षा अभियान, समग्र शिक्षा अभियान, विद्यालय कायाकल्प योजना — कागज़ों पर तो बेहद प्रभावी लगती हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और बयां करती है।
बघऊ विद्यालय की छत गिरने की घटना इस बात का जीवंत प्रमाण है कि अधिकारी फाइलों में रिपोर्ट्स बना रहे हैं, लेकिन स्कूलों की दशा सुधर नहीं रही। प्रधानाध्यापक, शिक्षामित्र और खंड शिक्षा अधिकारी मौके पर होने के बावजूद यह लापरवाही क्यों बनी रही? क्या शिक्षा विभाग के पास कोई नियमित निरीक्षण और भवन संरचना की जांच की प्रणाली नहीं है?
इस घटना से एक और गंभीर मुद्दा सामने आता है — शिक्षकों की भूमिका और उनकी सीमाएं। इस हादसे के दौरान प्रधानाध्यापिका पुष्पा देवी और उनके सहकर्मी मौके पर मौजूद थे। उन्होंने बच्चों को सुरक्षित निकालकर उच्च अधिकारियों को सूचना दी।
यह दर्शाता है कि शिक्षक न केवल शिक्षा का दायित्व निभा रहे हैं, बल्कि प्रशासनिक उदासीनता की भरपाई भी कर रहे हैं। कई बार उनसे भवन की मरम्मत, बिजली, पानी, मध्यान्ह भोजन, यहां तक कि छात्रों की उपस्थिति बढ़ाने की जिम्मेदारी भी थोप दी जाती है। ऐसे में असली सवाल यह है कि क्या शिक्षक पढ़ा रहे हैं या विभागीय खामियों को ढक रहे हैं?
अधिकारियों की रस्म अदायगी: जांच, आश्वासन और फिर मौन
जैसे ही कोई घटना होती है, प्रशासन की प्रतिक्रिया हमेशा एक जैसी होती है — “तकनीकी जांच कराई जाएगी”, “किसी के घायल होने की सूचना नहीं है”, “आवश्यक कार्रवाई की जाएगी”।
क्या कभी हमने सुना कि जांच रिपोर्ट सार्वजनिक हुई? दोषियों पर कार्रवाई हुई? मरम्मत कार्य कितने दिन में हुआ? ज़्यादातर मामलों में जांच एक औपचारिकता बनकर रह जाती है। इससे न तो शिक्षकों को राहत मिलती है, न छात्रों को सुरक्षित वातावरण।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) और राज्य बाल आयोगों का दायित्व है कि वे बच्चों की सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा करें। परंतु जब एक प्राथमिक विद्यालय में 32 नन्हीं जानें छत के गिरते प्लास्टर से बाल-बाल बचती हैं, तो क्या यह आयोग की सक्रियता की अपेक्षा नहीं करता?
ऐसे मामलों में स्वतः संज्ञान लेना और स्थानीय प्रशासन से रिपोर्ट तलब करना बाल सुरक्षा की दिशा में पहला कदम होना चाहिए, जो अक्सर नहीं होता।
जिस क्षेत्र में यह घटना हुई, वहाँ के जनप्रतिनिधि — ग्राम प्रधान से लेकर विधायक और सांसद तक — जनता की भलाई के लिए चुने गए हैं। लेकिन जब विद्यालयों की स्थिति बदहाल हो और हादसे होते रहें, तो उनकी निष्क्रियता को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?
क्या इन प्रतिनिधियों ने कभी स्कूल भवन का दौरा किया? क्या ज़िला योजना समिति की बैठक में विद्यालय की मरम्मत का प्रस्ताव लाया गया? अफसोस की बात है कि जनप्रतिनिधियों की चिंता सिर्फ चुनावों तक सीमित रह गई है।
समस्या गंभीर है, लेकिन समाधान असंभव नहीं।
हर सरकारी विद्यालय की संरचना की तकनीकी जांच हर साल इंजीनियरों द्वारा की जाए और रिपोर्ट ऑनलाइन पोर्टल पर डाली जाए।
जिसमें जनप्रतिनिधि, अभिभावक, शिक्षक, ग्राम प्रधान, ब्लॉक स्तर के अधिकारी शामिल हों और वे हर तीन महीने में स्कूल का जायजा लें।
विद्यालय कायाकल्प योजना के तहत मिलने वाली राशि का उपयोग ज़मीनी स्तर पर हो, इसके लिए पंचायत, बीएसए और प्रधानाध्यापक की त्रिस्तरीय निगरानी हो।शिक्षक नहीं होंगे भवन प्रभारी शिक्षक का कार्य केवल शिक्षण होना चाहिए। मरम्मत और संरचना संबंधी दायित्व विभागीय इंजीनियरों के पास ही रहें प्रशासनिक जवाबदेही तय हो
जिस विद्यालय में इस प्रकार की घटनाएँ हों, वहाँ के खंड शिक्षा अधिकारी और संबंधित अभियंता से सार्वजनिक रूप से जवाब मांगा जाए।शिक्षा की सुरक्षा को प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए
बघऊ प्राथमिक विद्यालय में हुआ हादसा तो टल गया, लेकिन यह एक चेतावनी है। यह चेतावनी है कि अगर अब भी हमने विद्यालयों के बुनियादी ढांचे की उपेक्षा की, तो अगली बार कोई बच्चा बच नहीं पाएगा। शिक्षा के अधिकार के साथ सुरक्षित शिक्षा का अधिकार भी जुड़ा होना चाहिए।
अब ज़रूरत है राजनीतिक इच्छाशक्ति की, प्रशासनिक जवाबदेही की और सामाजिक जागरूकता की। यह संपादकीय केवल एक दुर्घटना पर प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम के लिए एक आईना है।
बच्चे हमारी प्राथमिकता नहीं बने, तो हमारा भविष्य भी अंधकारमय हो सकता है।
शरद कटियार