विजय गर्ग
बादाम छीलते हुए मंजरी ने दो बादाम चुपके से अपने मुँह में डाल लिए। जब वह अपने पति आदित्य को दूध के साथ बादाम देने गई, तो उसकी सासू माँ शांतिबाई तुरंत भड़क उठीं,
“अरे! मैंने पूरे बादाम भिगोए थे, फिर आदित्य को कम क्यों दे रही हो?”
सासू माँ की इस नाराज़गी पर मंजरी की हालत जैसे काटो तो खून न निकले वाली हो गई। कांपती आवाज़ में वह बोली,
“वो… सासू माँ, छीलते वक्त दो बादाम नीचे गिर गए थे… अब कैसे देती उन्हें?”
शांतिबाई की शक भरी नज़रें मंजरी के अंदर तक चुभ गईं। उन्होंने तंज कसते हुए कहा,
“तुम्हारे मायके से बादाम की बोरी तो आती नहीं जो यूँ ही गिरा-गिरा के चलोगी।”
मंजरी मन में छिपे राज़ को छुपाते हुए, बर्तन उठाने के बहाने वहाँ से खिसक गई। रसोई में जूठे बर्तन रखते हुए, मायके की वो प्यारी और बेफ़िक्री भरी यादें उसकी आँखों में उतर आईं।
वहाँ कभी यह भेदभाव नहीं था कि किसका हक़ कितना है। यहाँ सासू माँ को लगता था कि घर की सारी ताकत की चीज़ें पुरुषों के लिए होती हैं — क्योंकि उन्हें बाहर मेहनत करनी पड़ती है। और औरतें? बस घर की देखभाल में लगी रहती हैं।
चूंकि ससुर जी अब नहीं थे, तो शांतिबाई खुद को भी “घर का मर्द” मान चुकी थीं। मंजरी ही अकेली थी जिसे इस घर में “औरत” माना गया था।
उसने सोचा — अगर आदित्य उसका साथ न देता, तो ये जीवन कितना सूखा और बेस्वाद हो जाता।
रात को खाना बनाकर और बर्तन साफ करके जब मंजरी कमरे में पहुंची, तो आदित्य उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसे देखते ही प्यार से मुस्कुराए और बोले,
“तुम्हारे लिए कुछ लाया हूँ।”
यह कहते हुए उन्होंने बादाम का एक पैकेट मंजरी के हाथ में थमा दिया।
“तुम्हें भीगे बादाम बहुत पसंद हैं न? इसलिए सोचो, ये सिर्फ तुम्हारे लिए हैं। अलग से भिगो कर खा लिया करो।”
आदित्य की इस छोटी सी पर प्यारी बात ने मंजरी के दिल को अंदर तक छू लिया। जैसे वो दो भीगे बादाम उसकी आत्मा को प्यार और समझदारी से सींच रहे हों।
“कभी-कभी रिश्तों की भीगी मिठास सिर्फ दो भीगे बादाम से लौट आती है… जहां समझ और स्नेह हो, वहीं घर की असली खुशबू होती है।”
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब